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हर तमाशा अजीब ही है / विजय किशोर मानव
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हर तमाशा अजीब ही है या
हमको दिखता बंधी नज़र जैसा
भीड़ का मुंह खुला है, हाथ उठे
ये मुहल्ले में है क़हर कैसा
आग लगती नहीं सुलगती है
घर को करती है खंडहर जैसा
आंख में एक उम्र रह लें तो
लगने लगता है एक घर जैसा
तट को छूती है लहर धीरे से
छोड़ जाती है बवंडर जैसा