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हर तरफ़ उसकी हवा हो जैसे / आलोक यादव

हर तरफ़ उसकी हवा हो जैसे
अपनी दुनिया का ख़ुदा हो जैसे

उसकी ख़ामोशी से क्यों लगता है
उसने कुछ मुझसे कहा हो जैसे

वो नदी पार उतरता सूरज
डूबते दिन की सदा हो जैसे

ख़ुश ख़रीदार बहुत लगता है
कोई बेमोल बिका हो जैसे

अब भी सोफ़े में है गर्मी बाक़ी
वो अभी उठ के गया हो जैसे

लड़खड़ाती सी चली आती है
धूप भी आबला पा हो जैसे

अजनबी मैं हूँ मगर लगता है
शहर में तू भी नया हो जैसे

तल्ख़ियाँ लहजे में उसके देखो
सारी दुनिया से ख़फ़ा हो जैसे

आदमी है तो वही बन के रहे
यूँ करे है कि ख़ुदा हो जैसे

ऐसे अन्दाज़ से करता है सवाल
बाप से अपने बड़ा हो जैसे

यूँ निभाता हूँ मैं रिश्ते 'आलोक'
बेगुनाही की सज़ा हो जैसे