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हर तरफ़ संत्रास अब मैं क्या करूँ आशा / रवीन्द्र प्रभात
Kavita Kosh से
छल रहा विश्वास अब मैं क्या करूँ आशा?
हर तरफ़ संत्रास अब मैं क्या करूँ आशा?
दर्द का है साज, कोई अब तरन्नुम दे
कह रहा मधुमास अब मैं क्या करूँ आशा?
जिस्म के सौदे में हैं मशगूल पंडित जी
छोड़कर संन्यास, अब मैं क्या करूँ आशा?
तिनका-तिनका जोड़कर मैंने इमारत है गढ़ी
पर मिला बनवास, अब मैं क्या करूँ आशा?
आम-जन के बीच देकर क्षेत्रवादी टिप्पणी वह
बन गया है ख़ास, अब मैं क्या करूँ आशा?
काव्य में खण्डित हुई है छंद की गरिमा
गीत का उपहास, अब मैं क्या करूँ आशा?