हर तरफ बिखरा हुआ जीवन का स्वर / विजय सिंह नाहटा
हर तरफ़ बिखरा हुआ जीवन का स्वर
कभी-कभी असह्य शोर-सा, निष्प्रयोजन सा
बेतरतीब, कर्कश होते स्वर: ध्वनि इसकी
मगर, यह आयोजन आह्लाद रहित नहीं
है इसका भी अर्थ गंभीर प्रयोजन
भला, इसमे भी बजती लय है: फूटती शाश्वत के संगीत से
जो दिखाई देता है क्रम विहीन, अराजक सा
देखो उत्सव है: निश्चित अनुक्रम है: अनादि में बद्ध सा
भीतर फूटता अप्रतिम सौंदर्य जीवन का
गूंजता अदृश्य संगीत
ये जो प्रचंड तूफान, वेगवान
झकझोरता जड़ें विशाल देवदारू की
समूल तिरोहित करता चिह्न जीवन के
है वहाँ भी लय निर्माण की, गति की
रखता आधारशिला नये बसन्त की
विकराल दावानल की बेकाबू लपटें
राख बना देती
विराट प्रांतर, तृणमूल, वनसंपदाएँ
उसके बाहर भीतर भी कसमसाता
रचना का शिल्प है
धूसर आकृति सा उभरता
सावन में फूट पड़ता हर अंकुर की कालजयी गाथा में
रेत के बियाबां में अंकित पदचिह्न
मनुज गंध भर नहीं जाग्रत रक्त शिल्प हैं
सुमिरन की हर सिहरन में दिपदिपाता सत्य गोया एक
ये बिखरा-बिखरा छिन्न-भिन्न ऊबङखाबङ जीवन परिचय
अगणित योद्धाओं के शोणित से दमक रहा जो
उसका भी योजक तो होगा ही कोई
यकायक, कांटों में बिद्ध हरियल फूल की मधु गंध-सी जिजीविषा
जो जोड़ती हर सूत्र जो बिखरा हुआ: औ' जटिल है
उसका समुच्चय
विस्मय, कि उसमे भी बहती लय है, स्वर है, गति है।