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हर दिशा में घने कुहासे हैं / विनोद तिवारी

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हर दिशा में घने कुहासे हैं
हम नदी-तट पे रह के प्यासे हैं

आपने आजतक नहीं पूछा
कौन हैं क्या हैं हम कहाँ से हैं

क्रांतियाँ और अपाहिजों का शहर
लोग बेवजह बदगुमाँ से हैं

आप जो भोज दे रहे थे हमें
उसकी आशा में हम उपासे हैं

हम तो सेवक हैं आपसे क्या कहें
जो शिकायत है आसमाँ से है

आप बहरे हैं ये है मजबूरी
और हम लोग बेज़ुबाँ-से हैं