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हर नई सांझ की सहर है जिन्दगी / चन्द्र त्रिखा
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हर नई सांझ की सहर है जिन्दगी
एक भटकी हुई लहर है जिन्दगी
सिर्फ अपना ही ग़म अपनी ही दास्तां
लेकर मर जाएँ तो ज़हर है जिन्दगी
खुद फरेबी में गर उम्र सारी कटे
कहर है जि़न्दगी, क़हर है जिन्दगी
जब जिएँ दूसरों के लिए ही जिएँ
दरअसल में वही शहर है जिन्दगी
कुछ सलीके से ख़ामोश कट जाए तो
खूबसूरत मुधर बहर है जिन्दगी