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हर पीड़ा का अन्त सृजन / विपिनकुमार अग्रवाल
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हर पीड़ा का अन्त सृजन
- चमत्कार
ईश्वर-सा
- फिर
प्रश्न
प्रकाश और छाया के बीच
यह कौन ?
मैं--
मानव! एक और...
क्या अभी कुछ और कहना शेष है
कुछ बाक़ी है जो तुमने रौंदा नहीं, क्या
तुम्हारी जिज्ञासा पर बली होने से कुछ रह गया
...हो तुम
जाओ, अपने को दुहराओ
प्रकाश और छाया के बीच
तुम हो
जिन्हें कुचलने में
असमर्थ !
धरती और आकाश सींग से फैले हैं,
उनके बीच
यह कौन ?
मैं...
बुद्धि !
...तुम हो
जाओ, दिगभ्रान्त भटको
बेतहाशा दौड़ो
पकड़ने अपने सींग की
झुकी नोक को
जाओ,
क्षितिज, प्रकाश और छाया के बीच
ओ मानव, ओ बुद्धि
मुक्ति चाहो तो ढूंढो
आत्मा को !
कहाँ ?
पीड़ा में
- सृजन में
- ईश्वर में
फिर
- चमत्कार
फिर
- प्रश्न
(रचनाकाल : 1957)