हर बार चिड़िया / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
फूली जेबों वाले
चले गये बराबर वालों के पास
आने लगी थी बदबू उन्हें हमसे
चाहत थी शामिल होने की
खानदानी रईसों में
बहुत पहले से
छोड़ दिया था बूढ़ी औरतों ने
बैठना गलियों में बिछाकर खाट
हाथ के पंखे की हवा से
निकलती नहीं अब गर्मी
बच्चे भी नजर आते हैं कम
खेलते थे जो दिनभर
स्टापू, कंचे, गुल्ली-डंडा
या चलाते थे पहिया, तार से
खाट बदल गई डबल बेड में
आँगन, अंधकार से
बहुत साल हो गये
खुली हवा में, चाँदनी में लेटे
स्वच्छ हवा बदल गई
अनेकानेक गंधों में
भीगे जूतों की,
गीली जुर्राबों की,
वातानुकूलित यंत्र की,
मच्छरमार टिकिया की
बार-बार वहीं पंखे की बासी हवा
दादी भूल गई है कहानियाँ
माएँ भूल गईं लोरियाँ
बस कोसती हैं मच्छरों को,
बदलते समय के माहौल को
घूमती है अब
तीन पहियों वाली साइकिल
डबल बेड के चारों ओर
लोग सिमटते गये अपने-आप में
चढ़ गये ऊपर दो मंजिल, तीन मंजिल
स्मृतियाँ वर्तमान में जीने नहीं देतीं
अतीत साथ रहता है हमेशा
और तुलनात्मक विचार भी
हवाएँ अब घुसती नहीं शहर में
तंग हैं रास्ते और बिल्गिंगें ऊँची
कोई वृक्ष नहीं
जिसकी गोद में आकर ठहरे पवन
करे अठखेलियाँ शाखों से, पत्तियों से,
भरे फलों में रस
बादल भी निकल जाते हैं दूर-दूर से
बारिश की झड़ी लगने पर भी
क्या पत्थर हरा होगा?
बस चिड़िया है
हर बार की तरह
ठांेगती यहाँ-वहाँ
गमलों की मिट्टी
कुतरती नवजात कोंपलें
पीती चोंच भर पानी
बारिश में बैठती खिड़की में
फड़फड़ाती अपने गीले पंख
उदास बच्चे की तरह
छतरी नहीं है जिसके पास
और डूब गयी है कागज की नाव।
गर्मियों में
बहुत सुबह चहचहाती है
मुर्गे तो खा लिये सब
मनुष्यों को नींद से
अब चिड़िया उठाती है
लाउडस्पीकर की
तेज आवाज से भी पहले
काट लेती है चक्कर शहर का
जागो, सोने वालो, जागो
सर्दियों में,
निकलती हो कुछ देर से
सेंकती हो धूप
बैठ औरतों के संग
खाती हो प्लेट में बचा खाना
तुम्हें कौन-सा स्वेटर बुनना है
चली जाती है सोने जल्द ही
तुम्हें कौन-सा चूल्हा जलाना है
मनुष्य के जीवन-सा
बँधा तुम्हारा जीवन
फिर भी आजाद।
अब तो हो जाती है मुद्दत
मिले पड़ोसी से भी
सभी आगे-पीछे जाते हैं
रात को देर से आते हैं
चिड़िया भी ठहरती है कहाँ?
किसी के उठने तक
शांत वातावरण
बदल जाता है कोलाहल में
सब भीड़ में खो जाता है।