हर बार नए साल की तरह / धर्मेन्द्र पारे
लौटकर आना चाहता हूं
बार बार इसी धरती पर
इन्हीं इन्हीं लोगों के बीच
इन्हीं गांवों इन्हीं मैदानों
इन्हीं दुख सुख मित्रता शत्रुता
रिष्तों नातों के बीच
अबके जाऊॅंगा तो जाऊंगा
जाता रहा हूँ सदियों से यूं ही
आना चाहता हूँ मैं तो यहीं यहीं
घूमा हूँ दिग दिगन्तर
अंत अनन्तर
पर मेरे भीतर
भीतर
भीतर
बस
यही यही भीतर ।
यहीं कहीं तो छुपा है मेरा प्यार
यहीं तो रहे सब मेरे यार
अतृप्त असंतुष्ट यहीं कहीं छूटी है मेरी
जवानी
यही रहा है मेरा लीलांगन
यहीं होती रही है शेष मेरी
जिंदगी ।
हर बार यहीं लौटना चाहता हूँ
पूरी ताकत से
जैसे दौड़ता था मैं बचपन में माँ के
पास ।
जैसे तमाम जंगल के सफाये के बाद
किसी साल सालों बाद
बारिष में
अंकुरित हो जाता है
किसी बागुड़
किसी लांगे
किसी गोये
किसी गढ़वाट
किसी मेड़ पर
कोई पुराना पेड़
मैं लौटता रहूंगा
हर बार नये साल की तरह ।
रचनाकाल : 20/9/2009