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हर बार / सुशान्त सुप्रिय
Kavita Kosh से
हर बार
अपनी तड़पती छाया को
अकेला छोड़ कर
लौट आता हूँ मैं
जहाँ झूठ है, फ़रेब है, बेईमानी है, धोखा है --
हर बार अपने अस्तित्व को खींच कर
ले आता हूँ दर्द के इस पार
जैसे-तैसे एक नई शुरुआत करने
कुछ नए पल चुरा कर
फिर से जीने की कोशिश में
हर बार ढहता हूँ, बिखरता हूँ
किंतु हर हत्या के बाद
वहीं से जी उठता हूँ
जहाँ से मारा गया था
जहाँ से तोड़ा गया था
वहीं से घास की नई पत्ती-सा
फिर से उग आता हूँ
शिकार किए जाने के बाद भी
हर बार एक नई चिड़िया बन जाता हूँ
एक नया आकाश नापने के लिए...