हर रात न काली होती है / शिवदेव शर्मा 'पथिक'
हर दिन न एक-सा होता है, हर रात न काली होती है,
हर रोज न फूल खिला करते, हर रोज न डाली रोती है।
पल-पल में अंतर होता है, क्षण में संसार बदल जाता,
हंसते मधुवन को पल में ही, आकर पतझाड़ बदल जाता।
प्रत्येक सांस में अंतर है, प्रत्येक बात में अंतर है,
कैसा परिवर्तन धरती पर, हर पात-पात में अंतर है।
हर रात न पूनम आता है, हर गागर खाली होती है,
हर दिन न एक-सा होता है, हर रात न काली होती है।
परिवर्तन ही जब जीवन है, संघर्षों से भय खाना क्या?
कल मरना है, सब मरते हैं, फिर तड़प-तड़प मरजाना क्या?
जीना हो तो संकट झेलो, काँटों में कलियाँ खिलती हैं,
चलनेवाले को एक नहीं, मंज़िलें हजारों मिलती हैं!
जिस बस्ती में हो अंधकार, कल वहीं दिवाली होती है,
हर दिन न एक-सा होता है, हर रात न काली होती है।
यह पृथ्वी की परिक्रमा अरे! दुनिया ही चलनेवाली है,
जलते जीवन में मौनसून की हवा बदलनेवाली है।
चक्कर ही है तो सूरज को अँधेरे में आना ही है,
रोनेवाले को आज नहीं तो कल हंसना, गाना ही है।
आशा की प्यासी धरती पर, बरसात कभी तो बरसेगी,
मन की दूबों पर बादल की बेटी शबनम भी तरसेगी!
विश्वास बचाये चल राही! यह रेत पार हो जायेगी,
कल बालू के मंसूबों पर रजनीगंधा इतरायेगी!
पक गये धूप से सरस बांस, बंशी मतवाली होती है,
हर दिन न एक-सा होता है, हर रात न काली होती है।
अंगार भरी पगडंडी पर कलियाँ गुलाब की खिलती हैं,
सौ बार फिसलनेवाले को, सीधी राहें भी मिलती हैं।
गिरनेवाले कुछ होश करो, चोटी को लक्ष्य बनाना है,
चोटी को पाँव छुयें, मन की आशाओं को थिरकाना है।
ऊपर को उठनेवाले में, कुछ लगन निराली होती है,
हर दिन न एक-सा होता है, हर रात न काली होती है।
जीने दो आशा, अभिलाषा, चेतना, प्रेरणा प्राणों की,
बन-बन कर मोम पिघलती है, छाती निर्मम चट्टानों की!
जीवन की भाषा रहती है कुछ बिखड़े विश्वासों में भी,
प्राणों का यौवन रहता है कुछ घुटती-सी साँसों में भी!
यह कसक, प्रगति की चिता-लपट पर जीने वाली होती है,
हर दिन न एक-सा होता है, हर रात न काली होती है!
जो गिर-गिर कर उठ जाता है, जो फिसल-फिसल कर चलता है,
अँधेरे का राही कोई, युग-युग दीपक बन जलता है।
सीढ़ियाँ बनी हैं चढ़ने को, पीछे की ओर उतरना क्या?
यदि टूट गयी पतवार, जूझ जा लहरों से, फिर मरना क्या?
लहरों पर तिरनेवाले में तट की खुशियाली होती है,
हर दिन न एक-सा होता है, हर रात न काली होती है।