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हर रोज़ की तरह / पंछी जालौनवी
Kavita Kosh से
हर रोज़ तरह आज भी
सूरज खिड़की पर
एक नई सुब्ह लिये खड़ा था
हर रोज़ तरह
आज भी
बनफ़शी ख़्वाबों का हाथ थामे
ज़रुरत ने दिन तमाम किया
हर रोज़ तरह
आज भी
कहीं से धुआं उठा
कोई चीख़ दबी
कोई ख़ामोश हो गया
हर रोज़ तरह
बदन से इजाज़त लिये बग़ैर
आज भी
कई लोग रुख़्सत
हर रोज़ तरह
आज भी॥