हर लम्हा ही लगे आख़िरी दोस्तो / सूरज राय 'सूरज'
हर लम्हा ही लगे आख़िरी दोस्तो
ज़िंदगी है बड़ी सरफिरी दोस्तो॥
एक शय जो नसीबे-ख़ुदा में नहीं
दोस्ती दोस्ती-दोस्ती दोस्तो॥
सौ बरस साँस चलती रही है, मगर
चार पल भी जिये न कभी दोस्तो॥
आँख से नींद की जब भी अनबन हुई
रात के साथ माँ ही जगी दोस्तो॥
एक बाज़ार अंधों का है ये जहां
रूह सस्ती बदन कीमती दोस्तो॥
बाँटना ग़ैर के ग़म अगर ख़ुदकशी
आओ हम सब करें ख़ुदकशी दोस्तो॥
अश्क खारे लहू लाल सबका यहां
कौन है फिर यहाँ अजनबी दोस्तो॥
आईना ज़िन्दगी धड़कनें रोशनी
मायने दोस्ती के कई दोस्तो॥
जल गईं उंगलियाँ माँ की सच है, मगर
कोई रोटी कभी न जली दोस्तो॥
दर्द का दर्द से दर्द तक का सफ़र
इतनी आसां नहीं शायरी दोस्तो॥
जब मिली तो मेरे पास तुम ही नहीं
अब करें भी क्या लेकर ख़ुशी दोस्तो॥
कौन समझेगा "सूरज" का दीवानापन
आग ख़ुद के लिये ही चुनी दोस्तो॥