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हर शख़्स ज़रूरत की सलीबों पर टँगा है / हरीश प्रधान

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अल्लाह! मेरे घर में, क्या दौर चला है
हर शख्‍़स, ज़रूरत की, सलीबों पर टँगा है।

ग़ैरों ने नहीं, चाहने वालों ने ठगा है
अब कौन पराया है और कौन सगा है।

कुचला गया है राह में, कौन, क्‍या पता
अपनी उधेड़बुन में ही, हर शख्‍़स लगा है।

टूटे हुए शीशों का शिकवा करे है वो
चुपचाप मारकर के पत्थर, जो भगा है।

इन्साफ की दुहाई किससे करें 'प्रधान'
मुंसिफ का ही लहू से जब हाथ रँगा है।