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हर शख़्स तेरे शहर का अपना सा लगे है / मोहम्मद इरशाद
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हर शख़्स तेरे शहर का अपना सा लगे है
तुम से मेरा मिलना तो इक सपना सा लगे है
चेहरे पे उसके ताज़गी सुबह की तरह है
रोता हुआ भी वो मुझे हँसता सा लगे है
काँटों में जो खिलता है उस फूल की तरह
हर बात पे हँसता है ये पगला सा लगे है
मानिन्दे चाँदनी के निखरा हुआ है तू
गोया के चाँद से अभी उतरा सा लगे है
पहले की तरह तू भी तो मिलता नहीं है अब
बदली हुई दुनिया में तू बदला सा लगे है
‘इरशाद’ तुम से अब कोई बात क्या करें
जब भी तू मिलता है हमें लड़ता सा लगे है