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हर सच दुख है / विपिन चौधरी

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हर सच्चाई
दुख है
  
जितने सच उतने ही दुख
 
गाँव से भाग
बम्बई की बदनाम बस्ती में पनाह लिए
एक छोटा बच्चा
नँगे पाँव बारिश में
चाय भरे गिलासों की ट्रे लिए जा रहा है
 
एकमात्र यही बिंम्ब ही
एकसाथ कितने दुखों को लेकर आया है
बदनाम बस्ती की झरोखोनुमा खिड़कियों वाली चालो से झाँकती
अर्धनग्न युवतियों के दुख
आवारा लड़कों द्वारा सताने के दुख के अलावा
सुबह लड़के के हाथों
गिलास टूट जाने के कारण
पगार से पैसा काट लिए जाने का दुख
 
चाय में गिलासों में गिरता
बारिश का गन्दला पानी
भी तो दुख ही है
 
लड़के के तलवे में अभी कुछ चुभने का सच भी
दुख के बिम्ब से बाहर नहीं
जिसे वह बहती सड़क के चलते
ट्रे नीचे रख,
निकाल भी नहीं सकता
पड़ोस की मंज़िल के सबसे ऊपरी माले से एक भड़वे ने लड़के को
भद्दी गाली दी है
नीचे खड़े दुकानदार ने उसे लड़खड़ाते देख
यह कह
उसके सिर पर चपत लगाई है,
“साले चाय में बारिश का पानी डाल कर पिलाएगा”
 
अब सच्चाई के इतने दुखों के वर्णन
का भार
नहीं ढो सकेगी
यह इकलौती कविता