भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हर सहर धूप की मानिंद बिखरते हुए लोग / प्रफुल्ल कुमार परवेज़
Kavita Kosh से
हर सहर धूप की मानिंद बिखरते हुए लोग
और सूरज की तरह शाम को ढलते हुए लोग
एक मक़्तल—सा निगाहों में लिए चलते हैं
घर से दफ़्तर के लिए रोज़ निकलते हुए लोग
घर की दहलीज़ पे इस तरह क़दम रखते हैं
जैसे खोदी हुई क़ब्रों में उतरते हुए लोग
बारहा भूल गए अपने ही चेहरों के नुकूश
रोज़ चेहरे की नक़ाबों को बदलते हुए लोग
धूप तो मुफ़्त में बदनाम है आ दिखलाऊँ
सर्द बंगलों की पनाहों में झुलसते हुए लोग
ज़िक्र सूरज का किसी तरह गवारा नहीं करते
घुप अँधेरों में सितारों से बहलते हुए लोग
आज के दौर में गुफ़्तार के सब माहिर हैं
अब नहीं मिलते क़फ़न बाँध के चलते हुए लोग