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हर सुबह को गुंचे में बदल जाती है / जाँ निसार अख़्तर
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हर सुबह को गुंचे में बदल जाती है
हर शाम को शमा बन के जल जाती है
और रात को जब बंद हों कमरे के किवाड़
छिटकी हुई चाँदनी में ढल जाती है