हर सुबह रेत बनता प्राण / लाल्टू
हर सुबह उठते ही जब सोचता हूँ कि कपड़ा ठीक से पहन लूँ कि बाई चांस कोई खिड़की से देख न ले,
अख़बार धड़ाम से आ जताता है कि कहीं कोई फिर चीख़ा है कोई गरजा है
कि मनुष्य जंगली जानवर है
अब पूछते हो शाम होते ही मैं कहीं छिपा क्यों होता हूँ
जो देखता हूँ मस्तिष्क के किन दरवाज़ों में जा बसता है
जो सोचता हूँ वह रुक जाता है किसी और दरवाज़े पर
यूँ मकसद बनता है चमकीले दृश्यों का
बार-बार यही देख रहा धरती के कोनों से आई चीख़ों में
इसी बीच सुनता हूँ पक्षियों का कलरव
हाइवे पर दौड़ती गाड़ियों की साँ-साँ
समय का शून्य भरता है इस तरह
बदलता है कुछ एक पल और दूसरे पल के दरमियान
चलता रहता हूँ एक जगह पर थमा हुआ
अंजान लोगों को दुख बाँटता हुआ
मैं कैसे किसी को रोक लूँ
कि वह दुखों की चादर न ओढ़ ले
मैं स्वयं दखों का सागर हूँ
उत्ताल तरंगों में दुखों के छींटें बिखेरता हूँ
अंतहीन तटों में कण-कण बरसता है दुख
रेत बनता प्राण
बार-बार मुझसे गीला होता हुआ।