ओ विस्मृति के पहाड़ों में निर्वासित मेरे लोगो !
ओ मेरे रत्नों और जवाहरातो !
क्यों ख़ामोशी के कीचड़ में सोए हुए हो तुम ?
ओ मेरे आवाम ! गुम हो चुकी हैं तुम्हारी यादें
तुम्हारी हलकी नीली, वो आसमानी यादें ।
हमारे दिमागों में गाद भर चुकी है
और विस्मरण के समुद्र की लहरों में
ग़ायब हो चुके हो तुम लोग ।
कहाँ गई तुम्हारी सोच की वह धारा ?
कहाँ गया वह तेज़ बहाव विचारों का ?
किन लुटेरों ने लूट लिया
पक्के सोने का वह बुत
तुम्हारे सपनों में बसा हुआ था जो ?
आँधी-तूफ़ान की वेला है यह
इसी तूफ़ान से पैदा हुआ है उत्पीड़न और दमन
कहाँ है तुम्हारा वो जहाज़ ?
चान्दी का बना निरभ्र वो चन्द्रयान कहाँ गया ?
इस कड़क सर्दी के बाद
जो मौत को जन्म देती है –
अगर समुद्र सो जाएगा गहरी नींद
और निर्जीव और निस्पन्द हो जाएगा,
अगर बादल खोलेंगे नहीं
दिल में जमे दुख की गाँठ,
अगर यह चाँदनी-माँ मुस्कुराएगी नहीं
और बाँटेगी नहीं अपना प्यार,
अगर पर्वतों का सख़्त दिल पिघलेगा नहीं
और उनपर छाएगी नहीं हरियाली,
तो क्या कभी ऐसा हो पाएगा
कि तुम्हारा नाम पहाड़ों के ऊपर
सूरज की तरह चमके ?
क्या तुम्हारी यादें फिर पैदा होंगी ?
तुम्हारी हलकी नीली, आसमानी यादें ?
बाढ़ के पानी से घिरी
मछलियों की आँखों में
जुल्म और दमन की बारिश का डर है,
क्या इन आँखों में
आशा की चमक आएगी ?
ओ विस्मृति के पहाड़ों में निर्वासित मेरे लोगों !
नवम्बर / दिसम्बर 2001
अँग्रेज़ी से अनुवाद : अनिल जनविजय