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हलचल मन के गाँव में / शिवदेव शर्मा 'पथिक'

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बड़ी डगरिया उथल-पुथल की हलचल मन के गाँव में,
कहती है दुपहरिया मुझसे चल रे! चल-चल छांव में!
डगर-डगर पर ठहर-ठहर कर देख लिये तूफ़ान भी,
मरघट-मरघट अलख जगाकर पाये मैंने प्राण भी!

लहर-लहर पर चाँद लहरता, पहर-पहर पर रात है,
झिहिर-झिहिर कर बह-बह जाती, तन-मन में बरसात है।
मन के मन में घुल-घुल जाती ढुलमुल-ढुलमुल आस रे!
भाव-भाव में, छन्द-छन्द में, तान-तान में हास रे!

मोड़-मोड़ पर, छोर-छोर पर, कोर-कोर पर गान है,
बात-बात पर, पात-पात पर, डगर-डगर निर्माण है।
पृष्ठ-पृष्ठ रच रहा मुसाफ़िर, पंक्ति-पंक्ति को जोड़कर,
तिनका-तिनका, टुकड़ा-टुकड़ा, बिखरे फूल बटोरकर।

द्वार-द्वार पर अलख जगाकर, पार-पार पर गीत भी,
राह-राह पर, चाह-चाह पर, थिरक रहा संगीत भी,
अरी गगरिया! छलको छल-छल, पल-पल चंचल पाँव रे!
पीछे मेरे कांटे जंगल दलदल आगे छाँव रे!