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हल्की हरी हैं मेरी महबूबा की आँखें / नाज़िम हिक़मत
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हल्की हरी हैं मेरी महबूबा की आँखें
हरी
जैसे अभी-अभी सींचा हुआ
तारपीन का रेश्मी दरख़्त
हरी
जैसे सोने के पत्तर पर
हरी मीनाकारी
ये कैसा माजरा, बिरादरान,
कि नौ सालों के दौरान
एक बार भी उसके हाथ
मेरे हाथों से नहीं छुए ।
मैं यहाँ बूढ़ा हुआ
वह वहाँ।
मेरी दुख़्तार-बीवी
तुम्हारी गुदाज़-गोरी गर्दन पर
अब सलवटें उभर रहीं हैं ।
सलवटों का उभरना
इस तरह नामुमकिन है हमारे लिए
बूढ़ा होना ।
जिस्म की बोटियों के ढीले पड़ने को
कोई और नाम दिया जाना चाहिए,
उम्र का बढ़ना
बूढ़ा होना
उन लोगों का मर्ज़ है जो इश्क नहीं कर सकते ।
(1947)
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अनुवाद : सुरेश सलिल