हवाएँ है या चिट्ठियां? / महेश सन्तोषी
हवाएँ हैं या चिट्ठियाँ हैं?
फिर पहाड़ बुला रहे हैं हमें!
फिर बनते दिख रहे हैं,
हमारी बाँहों के, हथेलियों के पुल,
तुम्हारी हथेलियों दबाव,
आज बहुत याद आ रहे हैं।
याद है, हमें उड़ाकर ले जाना चाहती थीं
कुछ तेज गुस्ताख हवाएँ,
कितनी सिहर रहीं थी तुम, जब हमसे बोलीं थीं
हमें बाँहों में भर लो, कहीं हम उड़ न जाएँ!
चट्टानों से सुरक्षित लग रहे थे,
हमारे सिर से पाँव तक गुथे-गुथे बदन,
जब पहाड़ों को साक्षी बनाकर, हमने
हवाओं की गुस्ताखियाँ कर दी थीं कितनी कम।
लम्बा नहीं था, जो पहाड़ों से होकर गुजरा था
हमारे प्यार का सफर,
पर उसमें ऊँचाइयाँ थीं,
पहाड़ जो थे, हमारे कन्धों के ऊपर सिर पर।
कुछ तो होगा जो पहाड़ों पर आकर
प्यार बोते हैं, प्यार सींचते हैं लोग,
सरहदें ढँूढते हैं उमंगों की, प्यासों की
पत्थरों में से अमृत उलीचते हैं लोग।
कभी हमने यहाँ जो प्यार बोया था,
उसकी जड़ें वादियों तक थीं,
पर फैलाव पहाड़ों तक था;
हमने यहाँ दोबारा आने की उम्मीदें की थीं
प्यार दोहराने का हमारा मन भी था।
चलो, एक बार फिर बनाएँ बाहों के पुल,
पहाड़ बुला रहे हैं हमें
तुम्हारी हथेलियों के दवाब
आज बहुत याद आ रहे हैं!