हवाएँ / सिर्गेय येसेनिन / रमेश कौशिक
ये हवाएँ थीं नहीं बेकार
जो हिलाकर रख गईं आकाश को
था नहीं बेकार वह तूफ़ान
उडकर गया जो
भर गया चुपचाप कोई
आँखँ में मेरी
आरामदायक रोशनी भरपूर
छुआ हलके हाथ से मुझको किसी ने
दुख अन्धेरी रात में मैंने मनाया
उस मनोहर भूमि के हित
जो उठाती कष्ट
मेरी दृष्टि से हो दूर
मौन नभ-गंगा नहीं करती मुझे भयभीत
अपने तारकों से
लोक औ’ परलोक दोनों खींचते हैं
प्यार मेरा
जैसे यहाँ पर सुपरिचित तन्दूर
ये सभी देते मुझे आशीष पावन
किन्तु इनका तेज है मुझको जगाता
झील दर्पण पर बिखरती
मन्द गति से लाल सन्ध्या
पोस्त-फूलों का कि जैसे नूर
इन पोस्ट फूलों के समुन्दर पर
निकल जिह्वा से स्वतः
दौड़ती है कल्पना
सद्य जन्मे अरुण बछड़े को कहीं
व्योम-धेनु चाटती है प्यार में हो चूर