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हवाओं को गंध / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

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पाया मैंने ईश्वर को
इसी जीवन में
जब तुम आयीं
कहा धीरे से
तुम करती हो मुझसे प्यार
अचंभित कर देने वाला क्षण
जिसकी इस जीवन में
उम्मीद भी नहीं थी
कहते हैं ईश्वर को पाने में
कई जन्म लग जाते हैं
बड़ी साधना करनी पड़ती है
पर ईश्वर तो सामने था
तुम्हारे प्रेम के रूप में
और कह रहा था खुद ही
प्रेम के लिए
कितना रोमांचित वो क्षण
कैसे बाँधूँ शब्दों में
ईश्वर को सामने पाकर
क्या उच्चारता
सिवाय स्वीकार करने के
सिर झुकाकर
इस अनुग्रह के लिए
कृतार्थ हूँ
तुम्हें पाने के बाद
संपूर्ण हो गया जीवन
और वैसे भी
ईश्वर को पाने के बाद
क्या बचता है इस जीवन में?
हवाओं को गंध
तुम कुछ बढ़ती हो
और हर बार
उससे भी कुछ ज्यादा
लौट जाती हो
सोचती हो
लोग क्या कहेंगे?
क्या कोई समझ पायेगा
इस प्यार को
यह तो परेशानी है
कुछ ना कुछ तो कहेंगे
हवाओं को कोई गंध चाहिए
जीभ को कोई स्वाद
सोचती हो
शायद हमारे बीच कुछ भी नहीं
कैसा भ्रम है
अगर कुछ ना होता
तो फिर भय कैसा?
और किसका?
तुम्हारी भावनायें हैं जैसी
समझती हो,
लोग उन्हंे वैसा नहीं समझेंगे
बस यही सोच हर बार
तुम्हारे कदम ठहरा देती है
क्या-क्या करोगी?
दूसरों की नजरों से तौलकर
खुद से पूछो
कितना-कितना करती हो
दूसरों की भावनाओं के चलते
इस तरह तो
शायद धरा भी कभी-कभी
बीच में रुक जाती
चाँद भी लंबी छुट्टी पर चला जाता
सूरज भी अपना मुँह छिपा लेता
तुम्हें जीना है अपने लिए
अपनी खुशियों के लिए
क्या तुम खिलना छोड़ दोगी?
क्या तुम नहीं फलोगी?
अपने मन से पूछो
अपने तन से पूछो
आखिर कब तक
यूँ ही आगे बढ़कर लौटती रहोगी?
हाथ मेंआई
हर खुशी को छोड़ती रहोगी?