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हवा, धूप, पानी से बातें दो-चार / जयप्रकाश त्रिपाठी

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ताल पर
अन्धेरा छा गया आरपार,
उजियारे सपने
हो रहे तार-तार।

सुबह की
हथेली पर शाम के
चकत्ते,
थाल-थाल
ऐंठ गए
तुलसी के पत्ते,
मुट्ठीभर गिरवी दिन
पड़ गए उधार।

उग आए
आँख-आँख
छुरी और काँटे,
जीवन में कौन
और
अपना दुख बाँटे,
पत्थर-पत्थर उँगली
उठे बार-बार।

देखकर
उड़ानों से लगता है
ज़िन्दा,
रिश्तों की
सरहद
पर अजनबी परिन्दा,
हवा, धूप, पानी से बातें
दो-चार।