भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हवा-ए-सर्द चल पड़ी, चराग़ ए दिल बुझा गई / नासिर परवेज़
Kavita Kosh से
हवा-ए-सर्द चल पड़ी, चराग़ ए दिल बुझा गई
तुम्हारा नाम सुन लिया, तुम्हारी याद आ गई
तुम्हारा रूठना मुझे ख़िज़ां नसीब कर गया
उदासियों की रुत अजब थी जिस्म ओ जां पे छा गई
गुज़रते माह ओ साल ने भुला दिए हैं सारे ग़म
उसे भी चैन पड़ गया, मुझे भी नीन्द आ गई
गुल-ए-शगुफ़्ता हिज्र की तमाज़तों से जल गया
तिरे फ़िराक़ की तपिश मिरा शबाब खा गई
बिछड़ते वक़्त हाल-ए-दिल हुज़ूर ए यार जब कहा
सो उस का ये जवाब था, तुम्हारी ट्रेन आ गई