भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हवा-1 / सुनीता जैन
Kavita Kosh से
अपने आप कभी नहीं मरता फूल
मरता है उस हवा के मारे
जो सुबह
करती गुहार
चूम लेती पंखुरी की
अन्तिम परत कोमल
फिर बदल जाती पाकर सुगन्ध
धीरे-धीरे
रोकता तब फूल दोनों बाँह पसारे
लौटती नहीं वह
लौटते हैं लू के थपेड़े
छोड़ देता फूल तब
आत्म रक्षा के यत्न सारे
अपने आप कभी नहीं मरता फूल
मरता है केवल हवा के मारे।