भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हवा कह रही / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हवा कह रही-
झरे रात-भर पुरखे पत्ते
उन्हें सँजोओ

उन्हें पता है - आसमान में
कितने सूरज उगे-बिलाये
जो कुछ नीचे हुआ धरा पर
उसके साखी उनके साये

ओस बिछी जो
उन पत्तों पर
उससे अपनी आँखें धोओ

कोंपल होकर जनमे थे वे
ऋतु-मिठास उनने थी चाखी
सोन दुपहरी – उसी धूप में
उनसे बतियाये थे पाखी

उनके देखे
सुख-सपनों को
अपनी साँसों में भी बोओ

तचे धूप में – बरखा भीगे
पतझर के झोंके भी झेले
कठिन समय में रहे धीर वे
देखे हाट-लाट के खेले

उनसे सीखो
विपदा में भी
कभी न अपना आप खोओ