किस क़दर
बदला हुआ है
इस हवा का आचरण
शब्द तक ही केन्द्र
हर सन्दर्भ की शालीनता
पर अर्थ आवारा हुए
हर गली के मोड़ पर
उच्छृंखल बजती धुनें
क्यों गीत विष-धारा हुए
रच रहे
अब वात्स्यायन
नए युग का व्याकरण।
कोंपलों-सी, फूल-सी यह
वक़्त की नाज़ुक हथेली
दंश बिच्छू के सहे
अब अन्धेरे में दुबक
भयभीत छिप बैठी हया
सुन ढीठता के कहकहे
और नंगे दिखते हैं
देह के ये आवरण।
सितम्बर 1999