भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हवा का गीत / हरीश निगम
Kavita Kosh से
बोल हवा तू आती कैसे
पेड़ों को लचकाती कैसे?
हाथ-पाँव ना दिखते तेरे
करती रहती फिर भी फेरे,
रंग-रूप को हम लोगों से
कुछ तो बता, छिपाती कैसे?
मीठी-मीठी और नरम-सी
ठंडी-ठंडी कभी गरम-सी
बोली बदल-बदल के अपनी
सबको रोज छकाती कैसे?
आँधी बन के आ जाती हो
सारे जग पर छा जाती हो,
धूल-धुएँ का जादू बनकर
अपना रंग जमाती कैसे?
पुरवाई, पछुआ बासंती
नामों की कोई ना गिनती,
सच कहना तुम इतने सारे
नाम याद रख पाती कैसे?