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हवा के झोंके/ अजित कुमार

हवा के झोंके नहला गए ।
बैठा था बेहद मन मारे मैं ।
गिनता था, गिन-गिन कर भूल-भूल जाता था तारे मैं ।
आए, मुझे गुदगुदा कर बहला गए
   हवा के झोंके ।
ओरे, मेरी पीर साथ लिए कहाँ जाते हो ?
अपने को भूल सकूँ । इसकी एकमात्र तदबीर
क्यों भुलाते हो । --
पूछता था उनसे ।
तभी दुखती हुई रग को हौले-हौले सहला गए
हवा के झोंके ।
एक सनसनी-सी छूट गई थी जो तन में
उनके परस की;
वही
रह-रह कर उभर-उभर आती है मन में ।
उसी की अनुभूति हैं ये शब्द :
जो मुझसे, मेरे अनजाने, अनचाहे कहला गए
   हवा के झोंके ।
नहला गए हवा के झोंके ।