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हवा चली / योगेन्द्र दत्त शर्मा
Kavita Kosh से
अभी यहाँ, अभी वहाँ
रुकी कहाँ, गई कहाँ,
नगर-डगर, गली-गली
हवा चली, हवा चली!
इसे उठा, उसे पटक
यहाँ अटक, वहाँ मटक,
कहीं सटक, कहीं गटक
कभी कहीं गई भटक-
मची अजीब खलबली!
हवा चली, हवा चली!
पहाड़ को बुहारती
बहार को सँवारती,
गुबार को पुकारती
बुखार को उतारती-
हुई उड़ंच मनचली!
हवा चली, हवा चली!
कभी खड़ी, कभी पड़ी
कभी लगा रही झड़ी,
मचान, छान, झोपड़ी
धमाल, धमा-चौकड़ी
कहीं बुरी, कहीं भली!
हवा चली-हवा चली!
अगर कहीं गई बिफर
हिला दिए किले-शिखर,
महल हुए तितर-बितर
कभी इधर, कभी उधर-
निडर चपल, उतावली!
हवा चली-हवा चली!