हवा ज़रा इस और बहो / शोभना 'श्याम'
हवा ज़रा इस और बहो, पवन ज़रा इस और बहो
आज कहूँ मैं अपनी तुमसे और तुम अपनी कहो
तूने प्यार की बस्ती देखीटूटे नीड भी देखे हैं
हर गुलशन हर वीराने के तेरे पास तो लेखे हैं
कहाँ कहाँ हो आयी हो गंध की बोली में कहो
आज कहूँ मैं अपनी तुमसे ...
कर्तव्यों की कॉपी में लिखा गया और मिटता रहा
लोक व्यवहार की चौखट में सदा ये जीवन घुटता रहा
खोल दिए हैं सारे झरोखे निर्बाध मेरा मन गहो
आज कहूँ मैं अपनी तुमसे ...
ख़्वाबों के जंगल से चुन कर टहनी एक मैं लाई थी
छील छाल कर बड़े जतन से बंसी एक बनाई थी
रूठे सुर इस बांसुरी के बन सरगम कुछ पल रहो
आज कहूँ मैं अपनी तुमसे ...
संग तेरे मैं बह न पायी गिला न इसका करना तुम
देर से आयी पर हूँ आई बाहों में भर लेना तुम
जिस अग्नि में अंतस जलता बन हमदम तुम भी सहो
आज कहूँ मैं अपनी तुमसे और तुम अपनी कहो