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हवा पहाड़ी / बुद्धिनाथ मिश्र

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वह हवा पहाड़ी
नागिन-सी जिस ओर गई
फिर दर्द भरे सागर में
मन को बोर गई ।

चादर कोहरे की ओढ़े
यायावर सोते
लहरों पर बहते फूल
कहीं अपने होते?

देहरी-देहरी पर
धर दूधिया अंजोर गई
चुपके-से चीड़ों के कन्धे झकझोर गई ।

कच्चे पहाड़-से ढहते
रिश्तों के माने
भरमाते पगडण्डी के
ये ताने-बाने ।

क़समों के हर नाज़ुक
रेशे को तोड़ गई
झुरमुट में कस्तूरी यादों की छोड़ गई ।

सीढ़ी-सीढ़ी उतरी
खेतों में किन्नरियाँ
द्रौपदी निहारे बैठ
अशरफ़ी की लड़ियाँ ।

हल्दी हाथों को
भरे दृगों से जोड़ गई
मौसम के सारे पीले पात बटोर गई ।