हवा मुर्गियों की ख़ूबियाँ / ग्युण्टर ग्रास / उज्ज्वल भट्टाचार्य
क्योंकि वे शायद ही कोई जगह घेरती हैं
गुज़रती हवा से बने अपने अड्डे पर
और चोंच नहीं मारती हमारी घरेलू कुर्सियों पर ।
क्योंकि वे सपनों की कड़ी रोटियों को नकारती नहीं,
अक्षरों के पीछे दौड़ती नहीं,
जिन्हें डाकिया हर सुबह मेरे दरवाज़े के सामने गिरा जाता है ।
क्योंकि वे खड़ी रहती हैं,
सीने से कलगी तक
सब्र भरी एक सतहत, बारीक लिखावट में,
कोई पँख छूटा नहीं, न कोई विराम चिह्न...।
क्योंकि वे दरवाज़ा खुला रखती हैं,
कुँजी बना रहता है रूपक,
कभी-कभी कूँ-कूँ करती हुई ।
क्योंकि उनके अण्डे इतने हल्के होते हैं
और सुपाच्य, पारदर्शी ।
किसने देखा होगा ऐसा लमहा,
जब ज़र्दी अघा चुकी हो, आँख-कान मून्दकर ख़ामोश पड़ चुकी हो ।
क्योंकि यह शान्ति इतनी कोमल है,
वीनस की ठुड्डी के मांस जैसी,
पोसता हूँ मैं उन्हें ।
पूरब की हवा में अक्सर,
जब बीच की दीवारें पलटती हैं,
एक नया अध्याय सामने आता है,
सुखी मैं झुका रहता हूँ बाड़े पर,
जिसे मुर्गियों को गिनना नहीं —
क्योंकि वे बेशुमार हैं
और लगातार बढ़ाती जाती हैं अपनी तादाद ।
मूल जर्मन से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य