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हवा में एक घर / अशूरा एतवेबी / राजेश चन्द्र
Kavita Kosh से
भुरभुरी दोपहर
विशाल समुद्र, नग्न पेड़, तितली और क़ब्र
मैं यहाँ हूँ, गांववासी भी यहीं हैं
विदेशी भाषाओं की कहानियाँ भी यहीं हैं
यहीं पड़ी हैं ज़बानें, टूटी-बिखरी हुईं
मैंने चाहा, मुझे मालूम था,
मैं टिका रहा अनुपस्थिति के सहारे
मैंने चाहा, मुझे मालूम था,
झींगुर ने भयभीत कर दिया था भुनगे को
मैंने चाहा, मुझे मालूम था,
शब्द बेठौर थे और कॉफ़ी हलक़ी
मैंने चाहा, मुझे मालूम था,
आँखें मुन्दी थीं और घण्टा शापित हो चुका था
ग़रीब की नौकाओं ने
बनाई पालें शरणार्थी शक़्लों के लिए
सिर्फ़ उन्हीं लोगों ने, जो डरे हुए थे
घर की तामीर की हवाओं में
अँग्रेज़ी से अनुवाद : राजेश चन्द्र