हर हत्या के बाद
मैंने दी है दस्तक
हर लूट के वक़्त
लगाई है ज़ोर-ज़ोर से हाँक
हर बलात्कार को देखकर
मैं चीख़ा हूँ
मगर
बेकार
सब बेकार
कोई नहीं सुनता अब
किसी की दस्तक
कोई हाँक
या चीख़
मैंने जब-जब खटखटाया है
ऊँचा दरवाज़ा
मेरी पीठ पर
चला दिया गया है हल
और लहलहाने लगी है
बर्बादी की फ़सल
मेरी कनपटी पर भिड़ गया है तमंचा
और यह सीख दी गई है
कि मैं मुँह न खोला करूँ
मैं जाऊँगा बस्ती-बस्ती
मैं गाँव-गाँव घूमूँगा
मैं दरख़्त-दरख़्त चढ़ूँगा
और चिल्लाऊँगा
ज़ोरों से
कि अब कुछ करना होगा