हवा मे डर / सुभाष राय
घरों की खिड़कियाँ दिन में भी बन्द रहती हैं आजकल
आसानी से नहीं खुलते दरवाज़े
पार्कों में सन्नाटा है, बच्चे नहीं आते खेलने
पेड़ों की जड़ों के पास चौपाल नहीं जमती
फूलों में कलियाँ आती हैं पर खिल नहीं पातीं
न जाने कब, कौन उन्हें मसल जाता है
उड़ते रहते हैं तितलियो के टूटे पँख
नदी के पानी में अजीब सी थरथराहट है
अब उसके किनारे नहीं आते गायों के झुण्ड, चरवाहे
रोज़ आधी रात बाद कोई लाठियाँ पीटता है पानी पर
छुरे पर धार लगाता है, तलवारें तेज़ करता है
खोपड़ियाँ टकराता, बजाता है
माँ-बाप की सलाहों में क़ैद
बच्चे छुट्टियाँ नहीं मना पाते
स्कूल में भी रहते हैं डरे-सहमे
सुबह-सुबह लोग टूट पड़ते हैं अख़बारों पर
रात कोई घर तो नहीं लुटा ?
कोई मारा तो नहीं गया?
कोई ग़ायब तो नहीं हुआ ?
अनहोनियाँ सरसराती रहती है कानाफूसियों में
किचेन में काम करती औरत को
जँगले के बाहर दिखती हैं छायाएँ
रात में सुनाई पड़ती है छत पर
किसी के चलने की ठक-ठक
हवा से खड़कती हैं कुण्डियाँ
और अधजगी आँखें फैल जाती हैं
इग्जास्ट फ़ैन के पीछे सोया कबूतर
फड़फड़ाता है पँख और डरा देता है
लरजती शाम, काँपती सुबह, झनझनाती रात
इसी तरह दिन गुज़र रहा है
आदमी डर रहा है, मर रहा है
