हवा है हवा है और... चांदनी है / कुमार मुकुल
किसी ने अपन चेहरा थोडा सा झुका लिया हो जैसे
सतरहवीं का चांद है यह साफ सुथरे भादों के आकाश में
लग्गी भर की दूरी पर एक सितारा है मुकाबिल
और आस पास दूर तक कोई नहीं है
हवा तेज है खासी ... ठंडी
जैसे दूर कहीं भीगते मैदानों से आ रही हो
मेरी दोहरी सफेद धोती मेरे साये से भागती सी
फड-फडा रही है और कानों में
हवा की मीठी सूं ...सूं गूंज रही है
भीतर मेरे इक शोर सा है
कि दूर जैसे समंदर की लहरें पछाड खा रही हों
माथा पटक रही हों कनारे के पत्थरों पर
हवा है ... हवा है ... और चांदनी है
हवा और चांदनी के दुशाले
मेरे वजूद पर अनवरत फिसल रहे हैं
ग्यारह बजने को हैं और शहर सोने को है
पडोस में कदली के पत्ते चमक रहे हैं
झींगे की लतरें भी
सफेद स्याह मकानों के सामने कोनों-अंतरों में
रोशनी के लट्टू भगजोगनियों से चमक रहे हैं
जहां तहां पानी के चहबच्चे चहक रहे हैं चांदनी में
और रोशन खिडकियों के प्रतिबिंब
हिल रहे हैं पानी में
एक झींगुर बोले जा रहा है पनी में ...
तिक तिक तिक तिक
फिर कहीं दूसरा और तीसरा
जैसे चांदनी का गीत गा रहे हों वो ...
बीच बीच में एक टिटहरी
टिहुक जा रही है कहीं से।
1998