भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हवा हो तुम / मनीषा पांडेय
Kavita Kosh से
चीड़ के जंगलों से बहती चली आती
हवा हो तुम
आती
बालों को उड़ाती
दुख से चुभती आंखों पर सुख बनकर बैठ जाती
गालों को दुलार से छूती
बतियाती
पूछती हाल,
कभी न कही गई कहानियां
मन के सबसे अंधेरे कोने
अपने संग बहा ले जाती
सब उदासियों का बोझ
मन इतना हल्का
जैसे हवा में उड़ते
रूई के फाहे हों