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हवा / मुकेश प्रत्यूष

1.
हवा मेरे खिलाफ होती
तो सोचता - बहुत कठिन है इसके बीच से गुजरना
किन्तु खिलाफ
तो
मैं हूं - हवा के
क्योंकि निर्विध्न बहती इस हवा में
बहुत कुछ है ऐसा, जरुरी है जिसका रोका जाना

अब हवा है कि टकरा रही है मुझसे
चोट-पर-चोट-पर-चोट करती मेरे सीने पर
चाहती है : कर लूं पीठ मैं भी उसकी ओर
और उकड़ू बैठ जाउं औरों की तरह उसके सम्मान में
और, यही मुझे मंजूर नहीं
मंजूर नहीं मुझे - बिना छने हवा को अपने पास से गुजरने देना

2.
यह जो हवा को बीच राह रोक कर खड़ा हंू मैं
- सहता उसकी हुंकार
- झेलता उसके दंश
खिलाफ नहीं हूं उसके बहाव के
चाहता हूं - बहे
पूरे वेग से, निर्विघ्न बहे
लेकिन यह नहीं कि
उसके बहाव के कारण
- कोई तरुवर झुक जाए इतना कि चूमने लगे धरती
- कोई आदमी रख ले आंखों पर हाथ, उकड़ू बैठकर फेर ले पीठ
  और जैसे चाहे वैसे गुजर जाने दे उसे
- या किसी सागर का गहरी नीला जल
  लांघ जाए तट की मर्यादा
  और भूल जाए
  कि जिधर से गुजरेगा उधर भी जीवन है : पूरा-का-पूरा जीवन

3.
सच कहती है हवा
वह कभी नहीं रही खिलाफ मेरे

खिलाफ तो मैं ही चलता रहा उसके

जानती है हवा
जहां-जहां से गुजरती है वह
ऋणी हो जाता है सारा-का-सारा जीवन
अब चाहे तो सब कुछ ज्यों-का-त्यों छोड़ चुपचाप गुजर जाए
या कुछ उलट-पुलट दे : कुछ तहस-नहस कर दे

ऐसे में कैसे बर्दाश्त करे हवा
एक अकेले, निहत्थे
किन्तु सिर उठाए आदमी को