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हवेली / मख़दूम मोहिउद्दीन

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एक बोसीदा<ref>प्राचीन</ref> हवेली यानी फ़रसूदा<ref>जीर्ण-शीर्ण</ref> समाज
ले रही है नज़‍अ के आलम<ref>प्राणों के अन्तिम समय में</ref> में मुर्दों से ख़िराज ।

एक मुसलसिल कर्ब<ref>पीड़ा, दुख</ref> में डूबे हुए सब बामो दर
जिस तरफ़ देखो अंधेरा जिस तरफ़ देखो खण्डर ।

मारवो कज़दम<ref>बिच्छू और साँप</ref> का ठिकाना जिसकी दीवारों के चाक<ref>छिद्र</ref>
उफ़ ये रख़्ने<ref>दरारें</ref> किस क़दर तारीक कितने हौलनाक<ref>भयंकर</ref> ।

जिनमें रहते हैं महाजन जिनमें बसते हैं अमीर
जिनमें काशी के बहरमन जिनमें काबे के फ़क़ीर ।

रहज़नों<ref>लुटेरे</ref> का क़स्रे शूरा<ref>परामर्श करने का स्थान</ref>, क़ातिलों की ख़्वाबगाह
खिलखिलाते हैं ज़रायम<ref>अपराध</ref> जगमगाते हैं गुनाह ।

जिस जगह कटता है सर इन्साफ़ का ईमान का
रोज़ शब नीलाम होता है जहाँ इन्सान का ।

ज़ीस्त<ref>जीवन</ref> को दर्स-ए-अजल<ref>मृत्यु का पाठ</ref> देती है जिसकी बारगाह<ref>दरबार</ref>
क़हक़हा बनकर निकलती है जहाँ हर एक आह ।

सीमो ज़र क देवता जिस जा कभी सोता नहीं
ज़िन्दगी को भूलकर जिस जा गुज़र होता नहीं ।

हँस रहा है ज़िन्दगी पर इस तरह माज़ी का हाल
खन्दाज़न<ref>हँसी उड़ाने वाला</ref> हो जिस तरह इस्मत पे क़हबा<ref>व्याभिचारिणी</ref> का ज़माल<ref>सौन्दर्य</ref> ।

जिस जानिब हैं वहीं उन बेनवाओं<ref>दरिद्र, कंगाल</ref> के गिरोह
हाँ इन्हीं बेनान<ref>बिना रोटी</ref>-ओ बेपोशिश<ref>बिना वस्त्र</ref> गदाओं<ref>भिखारियों</ref> के गिरोह ।

जिनके दिल कुचले हुए जिनकी तमन्ना पायमाल<ref>कुचली हुई</ref>
झाँकता है जिनकी आँखों में जहन्नुम का जलाल<ref>प्रताप, तेज़</ref> ।

ऐ ख़ुदाये दो जहाँ ! ऐ वो जो हर एक दिल में है
देख तेरे हाथ का शहकार<ref>किसान</ref> किस मंज़िल में है ।

जानता हूँ मौत का हमसाज़-ओ हमदम कौन है
कौन है परवरदिगारे बज़्म मातम कौन है ।

कोढ़ के धब्बे छुपा सकता नहीं मल्बूसे दीं<ref>कपड़ों में</ref>
भूख के शोले बुझा सकता नहीं रूहुले अमीं<ref>आत्मा का घर</ref> ।

ऐ जवाँ साले जहान<ref>नया संसार</ref>, जाने जहान ज़िन्दगी
सारबाने ज़िन्दगी<ref>जीवन को चलाने वाली</ref> रूहे रवाने<ref>जीवन से भरपूर आत्मा</ref> ज़िन्दगी ।

जिसके खूँ-ए-गर्म से बज़्मे चरागाँ ज़िन्दगी
जिसके फ़िरदौसी<ref>स्वर्गिक</ref> तनफ़्फ़ुस<ref>प्राणों का कार्य</ref> से गुलिस्ताँ ज़िन्दगी ।

बिजलियाँ जिसकी कनीजें<ref>दासियाँ</ref> ज़लज़ले जिसके सफीर<ref>यात्री</ref>
जिसका दिल ख़ैबर<ref>अरब का एक दुर्ग जिसको हज़रत अली ने जीता था</ref> शिकन जिसकी नज़र अर्जुन का तीर ।

हाँ वो नग़मा छेड़ जिससे मुस्कुराये ज़िन्दगी
तू बजाए साज़े उलफ़त और गाये ज़िन्दगी ।

आ उन्हीं खण्डरों पे आज़ादी का परचम खोल दें
आ उन्हीं खण्डरों पे आज़ादी का परचम खोल दें ।

शब्दार्थ
<references/>