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हसज कूजा-ग़र (4) / नून मीम राशिद

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जहाँ-ज़ाद
वो हल्ब की कारवाँ-सरा का हौज़ रात वो सुकूत
जिस में एक दूसरे से हम-किनार तैरते रहे
मुहीत जिस तरह हो दाएरे के गिर्द-हल्क़ा-ज़न
तमाम रात तैरते रहे थे हम
हम एक दूसरे के जिस्म ओ जाँ से लग के
तैरते रहे थे एक शाद-काम ख़ौफ़ से
के जैसे पानी आँसुओं में तैरता रहे
हम एक दूसरे से मुत्मइन ज़वाल-ए-उम्र के खिलाफ़
तैरते रहे
तू कह उठी ‘‘हसन यहाँ भी खींच लाई
जाँ की तिश्‍नगी तुझे
लो अपने जान की तिश्‍नगी को याद कर रहा था मैं
कि मेरा हलक़ आँसुओं न की बे-सहा सख़ावतों
से शाद-काम हो गया !
मगर ये वहम दिल में तैरने लगा कि हो न हो
मेरा बदन कहीं हलब के हौज़ ही में रह गया
नहीं मुझे दुई का वाहिमा नहीं
कि अब भी रब्त-ए-जिस्म-ओ-जाँ का ऐतबार है मुझे
यह तो वो ऐतबार था
के जिस ने मुझ को आप में समो दिया
मैं सब से पहले आप हूँ
अगर हमीं हूँ तू हो और मैं हूँ फिर भी मैं
हर एक शय से पहल आप हूँ
अगर मैं ज़िदां हूँ कैसे आप से दग़ा करूँ ?
कि तेरे जैसी औरतें जहाँ-ज़ाद
ऐसी उलझनें हैं
जिन को आज तक कोई नहीं सुलझा सका
जो मैं कहूँ कि मैं सुलझा सका तो सर-ब-सर
फ़रेब अपने आप से !
कि औरतों की साख़्त है वो तंज़ अपने आप पर
जवाब जिस का हम नहीं
लबीबी कौन है तमाम रात जिस का जिक्र
तेरे लब पे था
वो कौन तेरे गेसुओं को खींचता रहा
लबों को नोचता रहा
जो मैं कभी कर न सका
नहीं ये सच है मैं हूँ या लबीब हो
रकीब हो तो किस लिए तेरी खुद-आगही की बे-रिया नशात-ऐ-नाब का
जो सद-नवा ओ यक-नवा-खिराम-ऐ-सुभ की तरह
लबीब हर नवा-ऐ-साज़-गार की नफी सही !
मगर हमारा राबता विसाल आब-ओ-गिल नहीं न था कभी
वजूद-ए-आदमी से आब ओ गिल सदा बरूँ रहे
न हर विसाल आब ओ गिल से कोई जाम या सुबू ही बन सका
जो उन का एक वाहिमा ही बन सके तो बन सके !
जहाँ-ज़ाद
एक तू और एक वो और एक मै।
ये तीन जाविये किसी मुसल्लस क़दीम के
हमेशा घूमते रहे
कि जैसे मेरा चाक घूमता रहा
मगर न अपने आप का कोई सुराग पा सके
मुसल्लस-ए-क़दीम को मैं तोड़ दूँ जो तू कहे मगर नहीं
जो सहर मुझ पे चाक का वही है इस मुसल्लस-ए-क़दीम का
निगाहें मेरे चाक की जो मुझ को देखती हैं
घूमते हुए
सुबू ओ जाम पर तेरा बदन तेरा ही रंग तेरी नाज़ुकी
बरस पड़ी
वो कीमिया-गरी तेरे जमाल की बरस पड़ी
मैं सैल-ए-नूर-ए-अंदरूँ से धुल गया !
मेरे दरों को खलक यूँ गली गली निकल पड़ी
कि जैसे सुब्ह की अजान सुनाई दी !
तमाम कूजे बनते बनते तु ही बन के रह गए
नशात इस विसाल-ए-रह-गुज़र की ना-गहाँ मुझे निगल गई
यही प्याला ओ सुराही ओ सूबू का मरहला है वो
जब खमीर-ए-आब-ओ गिल से वो जुदा हुए
उन को सम्त-ए-राह-ए-नौ की कामानियाँ मिले
इक ग़रीब कूज़ा-गर
इंतिहा-ऐ-मारिफत
हर प्याला ओ सुराही ओ सुबू की इंतिहा-ए-मारिफत
मुझे हो इस की क्या ख़बर ?

जहाँ-ज़ाद
इंतिज़ार आज भी मुझे है क्यूँ वही मगर
जो नौ बरस के दौर-ए-ना-सज़ा में था ?
अब इंतिज़ार आँसुओं के दजला का
न गम-रही की रात का
शब-ए-गुनाह की लज्जतों का इतना जिक्र कर चुका
वो खुद गुनाह बन गई !
हल्ब की कारवाँ सारा के हौज़ का न मौत का
अपनी इस शिकस्त-खुर्दा ज़ात का
इक इंतिज़ार-ए-बे-अमाँ का तार है बँधा हुआ!
कभी जो चंद सानिए ज़मान-ए-बे-ज़मान में आ के रूक गए
तो वक़्त का ये बार मेरे सर से भी उतर गया
तमाम रफ़्ता ओ गुज़िश्‍ता सूरतों तमाम हादसों
के सुस्त-क़ाफिलें
मेरे दों में जाग उठे
मेरे दँरू में इक जहान-ए-ब़ाज-याफ़्ता की रेल पेल जाग उठी
बहिश्‍त जैसे जाग उठे खुदा के ला-शुऊर में !
गुनूदगी के रेत पर पड़े हुए वो कूजे जो
मेरे वजूद से बरूँ
तमाम रेज़ा रेज़ा हो के रह गए थे
मेरे अपने आप से फ़िराक में
वो फिर से एक कुल बने किस नवा-ए-साज़-गार की तरह
वो फिर से एक रक़्स-ए-बे-ज़मान बने
वो रूयत-ए-अज़ल बने !