भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हसरते-दिल कभी नाकाम भी हो जाती है / राजेंद्र नाथ 'रहबर'
Kavita Kosh से
हसरते दिल कभी नाकाम भी हो जाती है
ज़िन्दगी टूटा हुआ जाम भी हो जाती है
ये मसाइब की कड़ी धूप भी ढल जायेगी
दिन निकलता है तो फिर शाम भी हो जाती है
अहले-ज़र पर कोई उंगली नहीं उठने पाती
मुफ़लिसी बे-वजह बदनाम भी हो जाती है
हम ने देखा है कई बार जुनूँ के आगे
अक़्ल की पुख़्ता-गरी खाम भी हो जाती है
पेट की आग है वो चीज़ कि जिस के हाथों
आबरू हुस्न की नीलाम भी हो जाती है
पीने वालो नहीं हर रोज़ का पीना अच्छा
दुश्मने-जां-मये-गुलफ़ाम भी हो सकती है
हसरते-दीद में दर को तिरे तकते तकते
ये नज़र जुज़्वे-दरो-बाम भी हो जाती है।