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हसीन ख़्वाब की थी ताब-ओ ताज़गी मेरी / रमेश तन्हा

हसीन ख़्वाब की थी ताब-ओ ताज़गी मेरी
उसी के दम से थी हर रात शबनमी मेरी।

किबर-सिती की अता है उजाला इरफां का
है तीरगी में भी पुर-नूर ज़िन्दगी मेरी।

मैं जिस क़दर मय-ए-इरफान पीता जाता हूँ
कुछ और बढ़ती ही जाती है तिश्नगी मेरी।

बसारतों से जले हैं बसीरतों के चिराग़
न छीन मुझ से ख़ुदाया! ये रौशनी मेरी।

इसी उमीद पे ख़ूने-जिगर जलाता हूँ
न जाने क्या मुझे दे दे सुख़नवरी मेरी।

अब अपनी ज़ात ही में खुद को ढूंढना है मुझे
यही निजात है मेरी, यही खुशी मेरी।

जहान-ए-गुमशुदह कितने दिखा दिये इसने
अता-ए-बेश-बहा निकली आगही मेरी।

चली डगर पे तो गुम हो के रह गया था मैं
ख़ुशा कि राह पे ले आई गुम-रही मेरी।

न जीने देती है मुझको न मरने देती है
ये ज़िन्दगी है तो फिर क्या है ज़िन्दगी मेरी।

मैं जी रहा हूँ मगर ये भी कोई जीना है
है बन्दा परवरी मेरी न बन्दगी मेरी।

किसी तरह की कहीं से भला ही क्या उम्मीद
बुझे न अपने भी खूं से जो तिश्नगी मेरी।

है जानना मुझे, तो मेरी आंखों में देखो
इसी दयार में है हर खुशी, ग़मी मेरी।

ये सिर्फ तू नहीं 'तन्हा' ज़माना कहता है
मिरे सुख़न से नुमायां है तुर्फगी मेरी।