ईश्वर दत्त अंजुम ने अपनी ग़ज़ल को प्लास्टिक के फूलों से नहीं सजाया है। उन की शायरी के सारे किरदार सहरा की धूप की तरह हैं, जिन्हें किसी तौर झुटलाया नहीं जा सकता। उन्होंने मौजूआत को ज़रीया-ए-दाद बनाने के लिए शायरी को "आईटम सॉन्ग" नहीं बनाया है। बल्कि इस खुरदुरे पत्थर को इंतिहाई नरमी से छूने की कोशिश की है और यही नरमी तहज़ीबे-इश्क़ की रिवायत भी रही है। मुलाहज़ा कीजिए चंद अशआर:-
• जिस को चाहा है दिलो-जान से अब तक तूने
दिल वो तोड़े तो चरागों को बुझा कर रोना
• अब भी तन्हाई में उस को याद कर लेता हूँ मैं
जिस ने हाले-दिल न मुझ को आज तक कहने दिया
• हासिल निजात होगी शबे-ग़म से भी कभी
मुद्दत से आरज़ू-ए-सहर कर रहे हैं हम
• दिल का उजाला मिट गया जल्दी
रात से पहले रात हुई है
• आजज़ी से मिलो ति फिर जानो
क्या मज़ा आजज़ी से मिलता है
• मेरी फ़िक्र-ए-सुख़न के शहबाज़ो
खुद को ऊँची उड़ान में रखना
अंजुम साहिब के शेरी अफ़कार में दिल से दिल तक पहुंचने की यात्रा भी मौजूद है। हक़ीक़त ये है कि अगर ज़िन्दगी गर्दे-वफ़ा से आलूद है तो भी बेवफ़ाई के उजले पन से बेहतर है। कुछ और शेर मुलाहज़ा कीजिये:-
• हुजूमे-यास में तन्हा न थे कभी इतने
कि आज जितने अकेले हम अपने घर में हैं
• ये बुढापा भी क्या क़ियामत है
फिर से बचपन से जोड़ता है मुझे
• कोई कितना सगा भी बन जाये
फ़ासिला दरमियान में रखना
मैं तीसरे चौथे दर्ज़े का तालिब इल्म इस अक़ीदे पर यकीन रखता हूँ कि शेर अपने आप में एक "फाईनल डिसीजन" की हैसियत रखता है और उसे किसी तौसीफ वा तारीफ की ज़रूरत नहीं होती।