हस्तिनापुर / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
' कौन मधुर छाया-सा मेरे उर में डोल रहा है,
अश्रुसिक्त स्मृति पट को धीरे-धीरे खोल रहा है। "
" मैं हूँ शेष चेतना, तुमसे कुछ कहने आयी हूँ,
जीवन की गलियों में खोयी व्यथा-कथा लायी हूँ।
होकर तुम धर्मज्ञ रहे तत्पर अधर्म रक्षण में,
शब्दायित कर दूँ अतीत के कुछ क्षण अन्तिम क्षण में। "
" अरी चेतने! कुछ अतीत के पन्नों का वाचन कर,
तिरस्कृता अम्बा से मेरी वार्ता का वर्णन कर।
मेरे कारण ही उसने दुख-दाह अपार सहे हैं,
उर में है अपराध-बोध लेकिन दृग नहीं बहे हैं। "
" भीष्म! हरण कर अम्बा को तुम काशी से लाये थे,
मधुर कामनाओं के अंकुर मन में उग आये थे।
प्रासादों की पैशाचिक छवि में फिर जगी हँसी थी,
पूर्व समृद्ध हस्तिनापुर की परम्परा विकसी थी। "
" हाय अभागा! सुनू कहाँ तक स्वर अतीत वीणा से,
कर लूँ भजन, छीन लूँ कुछ क्षण असहनीय पीड़ा से। "
" किन्तु प्रतिज्ञा की दृढ़ता ने तुमने बचा लिया था,
घोर आँधियों में भी बुझने दिया न चरित दिया था।
सिंहासन रक्षण की चिन्ता तुमको सता रही थी,
स्वर्ण छत्र के संरक्षण की ज्वाला जला रही थी।
सृजन ध्वंस की सूत्र सर्जिका धरा समृद्ध प्रचुर है,
श्वेत-श्याम पृष्ठों से मण्डित ग्रन्थ हस्तिनापुर है।
जिसको शंखनाद पर श्रद्धानत दिग्गज होते थे,
जिसके हँसने पर हँसते थे रोने पर रोते थे।
राज महिषियाँ जहाँ अश्रु वैधव्य रही पाती हैं,
विवश कैद पाषणों में घुट-घुटकर रह जाती हैं।
आती ब्याह किन्तु अनब्याही दग्ध कामना होती,
रुढ़ि-पाश में बँधी हुई मृतका-सी काया ढोती।
न्याय धर्म के उच्चकथन वाणी से जहाँ मुखर हैं,
वहीं अधर्माचरण बने सब ओर अघोर प्रखर हैं।
जहाँ स्वार्थ के लिए उचित, सब अनुचित बन जाता है,
नीति और आचरण जहाँ वाणी तक रह पाता है।
जहाँ शक्ति सत्ता लिप्सा ताण्डव नर्तन करती है,
लाक्षागृह रच छद्म द्यूत का आयोजन करती है।
जहाँ अदम्य वासनाओं के ज्वार उठा करते हैं,
लाभ हानि यश अपयश से जो कभी नहीं डरते हैं।
जहाँ पुत्र के अरमानों की होली पिता जलाते,
बूढ़ी काया पर पाटल की गन्ध बलात चढ़ाते।
जहाँ न्याय-अन्याय बना है सत्ता रनिवासों में,
जहाँ कठिन अभिशाप उपजते ज्वारिल निःश्वासों में।
उत्कर्षित हो रहे जहाँ छलकपट दोष विषधारी,
धर्म-कर्म, लज्जा, मानवता रहती है दुखियारी,
सत्तालिप्सु हस्तिनापुर ने क्या न अनर्थ किया है,
समर-अग्नि में पूरे का पूरा कुल झोंक दिया है।
अष्टवसु अवतार भीष्म संकल्प अटल मुद्र्रित है,
ब्रह्मचर्य है जहाँ विवश दृढ़ प्रण से प्रतिबन्धित है।
ब्रह्मचर्य का भाव कहाँ हनुमत-सा सहज उदित है।
कठिन प्रतिज्ञा से जकड़ा वह असहज और दमित हैं।
दृढ़ है यदि संकल्प वेग मन के सुधार देता है,
पतनधर्मिणी तुंग-तरंगे सकल मार देता है।
नित्य मधुर शृंगार हुआ करते हैं मन मन्दिर में,
जगता है अचिरत्व न जाने क्यों अन्तर के चिर में?
गंगासुत ने जीवन में सुख नहीं कभी पाया है,
उर-अन्तर में सघन दुःख का अन्धकार छाया है।
जीवन की रागिनी जहाँ हरपल बस विवश रही है।
जहाँ भावनाओं की कृष्णा पाती नहीं मही है।
जहाँ कामनाओं के पीछे मन-पंजर में रहते,
नहीं कभी उन्मुक्त गगन में पंख पसार चहकते।
जहाँ व्यथा की कथा मौन हो धिक्-धिक् करजी रहती,
संकल्पों की बाढ़ दाड़-सी उसे कुचलती रहती।
जहाँ धर्म के बन्धन से वह विवश बँधी रहती है,
कुण्ठाओं की कठिन मार सैरन्ध्री-सी सहती है।
दमित चित्त व्यक्तित्व दीख्ता ऊपर रजत शिखर है,
अभ्यंतर में कुत्साओं का अर्चिजाल दुस्तर है।
सहज संयमित जीवन में यदि ब्रह्मचर्य पावन हो,
परम भाव से पूरित हो तो शान्ति स्वयं चन्दन हो।
प्रबल धैर्य हो और मधुरतम धर्माचरण धवल हो,
सत्य, शील, सद्भाव श्रेष्ठ हो ज्ञान परम उज्ज्वल हो;
तो यह ब्रह्मचर्य की प्रतिभा दिन-प्रमिदिन जाग्रत हो,
बन जाये आदर्श हर्ष से पृथिवी पर आवृत हो।
मनोजगत में जब तक है त्रिगुणातीत नहीं हो पाता,
ब्रह्मचर्य का परमभाव तब तक न सहज है आता है।
संयम की प्राचीर तोड़कर यदि यौवन बहता है,
तो जीवन में कुण्ठाओं की कठिन मार सहता है।
ब्रह्मचर्य स्वयमेव सहज ही उदित और पोषित हो,
ब्रह्मचर्य केवल न प्रतिज्ञा से ही अनुबन्धित हो।
भीष्म मनोरथ के हय सत्वर बढ़े चले जाते हैं,
किन्तु प्रतिज्ञा वल्गा को वे नहीं तोड़ पाते हैं
मन की गति है अथक चन्द्र -सी बढ़कर घट जाती है,
किंकर्तव्यिमूड़ भावना जगती पछताती है।
विष्कम्भ संकल्प-विकल्प सहेजे सम्पादित हैं,
किन्तु नहीं प्रत्यक्ष भाव कोई भी उद्घाटित हैं।
मधुगन्धों के ज्वार हार बन सके नहीं जीवन में,
ज्वालामुखी कामनाओं के शान्त रह गये मन में।
हाय! कौन-सा कर्म कौन-सा फल देने वाला है?
इस रहस्य पर सदा काल का लगा रहा ताला है।
प्रण का पहरा तोड़ विहग उड़ सका न मुक्त गगन में,
पंख फड़कता हुआ रह गया वेबस पंजर-तन में।
कुरुकुल की भावी वधुएँ आ गयीं हस्तिनापुर में,
सुयज्जित सुरबालाओं-सी शोभित अन्तःपुर में।
समर विजय से प्राप्त रत्न त्रय गंगासुत लाये थे,
सत्यवती माँ के उर-नभ पर हर्ष-मेघ छाये थे।
'अम्बालिका' 'अम्बिका' 'अम्बा' महलों में थी आयी,
याकि वसन्त बहारें षेडष उन्नत होकर छायीं।
मंगलकृत्य स्वस्तिवाचन हर ओर ध्वनित होते थे,
नव उल्लास उमंग तरंगित प्रतिदर्शित होते थे।
दान-मान-सम्मान द्विजों का होने लगा विपुल था
महलों का श्रंृगार मांगलिक खुशियों का संकुल था।
आशाएँ बलवती हुई कुरुकुल के विस्तारण की
पुण्य त्रिवेणी वधू-त्रयी से कुल के उद्धारण की।
रुग्ण और कृषकाय कुँवर वर के जीवन अभिनव की,
तैयारी हो गयी पूर्ण पावन परिणय उत्सव की।
भावी पति की दषा देखअम्बा आसन्न हुई थी,
अंधकार गहर भविष्य से चिन्तापन्न हुई थी।
अपनी चिन्ता नहीं उसे थी चिन्ता निज बहनों की,
बिखर रहे सजने से पहले उन स्वर्णिम सपनों की।
नर समर्थ को दोष नहीं कोई देने वाला है,
सत्ता और शक्ति और शान्ति के मद में कैसा मतवाला है।
विषय कूप का दादुर है हरपल षिकार करता,
लाज-वसन ममता के पामर तार-तार करता है।
कोमल-लता बबूल-शुष्क से क्यों लिपटायी जाती?
धृतवाही धारा तापित मरुथल में लायी जाती।
वर के सिर पर मृत्यु नाचती-सी मुझको दिखती है।
अस्थि मात्र आनन की धूमिल दीप्ति मरी लगती है।
हाय! राजमहलों से तो वैधव्य चिंघाड़ रहा है,
निष्ठुरता से मधुर भावना-पट को फाड़ दरहा है।
जगी हुई भावना क्रोध को पीकर रह जाती है,
और कठिन प्रतिषोध क्रान्ति-सी उठती ढह जाती है।
दृष्टि पिषाची क्रोध-अग्नि में घृत डाला करती है,
किन्तु विवष भावना उसी क्षण घुटती है मरती है,
जी करता है गला घोट दूँ मैं इन चण्डालों का,
या प्रवेष करवा दूँ सीने में ही करवालों का। "
आतुर है क्षतवीर्य कुँवर अनछुए अधर अमरत को,
धधक रहा अम्बा का उर है लिये भविष्यत मन को।
मन में मधुर कामनाओं की लाषें बिछी हुई हैं,
भाँय-भाँय करता उर अन्तर भौंहे ख्ंिाची हुई हैं,
किन्तु विवष नारीत्व गलित हो आड़े आ जाता है,
जगी हुई ज्वलाओं पर लज्जा जल बरसाता है।
" कैसा है विधिका विधान कुछ समझ नहीं आता है,
अपने इंगित से वह जैसा चाहे करवाता है,
हाय! विधाता ने आखिर यह क्या आकलन किया है
देवों के आँसू समेट नारी का सर्जन किया है।
रचकर दुर्बल भाग्य न्याय का मुख ही ष्याह किया है,
पीड़ाओं का पंक अंक में मेरे डाल दिया है।
मर्यादाओं से बन्धित यह तन ही व्यर्थ बनाया,
इसके ही कारण जीवन में संकट-वन उग आया। "
कहती है कुछ और-और कुछ मुखरित होता स्वर में,
भीषण अन्तर्द्वन्द्व मचा है अम्बा के अन्तर में,
यों तो नारी का उर-अन्तर है पूर्णिमा समुज्ज्वल,
किन्तु कभी रणचण्डी बनकर जाग्रत करती सम्बल।
कभी मनस में आषाओं के मधुर फूल खिलते हैं,
और कभी क्रोधानल के विध्वंसक स्वर मिलते हैं।
बलिवेदी से अधिक भयंकर यह परियण वेदी है,
जिसने जुही चमेली अंगार-भेंट दे दी है।
किन्तु मैं नहीं किसी तरह यह परियण स्वीकारूँगी,
नहीं पाटली-यौवन को अब कंटक पर वारूँगी।
यदि न भावनाओं को मेरी मृदु श्रंृगार मिलेगा
प्रण करती हूँ, नहीं कभी तो प्रणय-प्रसून खिलेगा।
अम्बा ने निज मनोभाव सब से बतलाये,
सत्यवती को अपने चिन्ता-पृष्ठ सभी दिखलाये।
" माता! मुझको क्षमा करो, कुलवधू न बन पाऊँगी,
अपर पुरूष का चिन्तन मन में मैं न कभी लाऊँगी।
भारतीय नारी न वरण करती है अपर पुरूष को,
हो जिससे अनुराग समर्पण करती है बस उसको,
जल न सकेगा और कहीं अ बवह मैं मौन दीया हूँ,
साल्वराज मेरे प्रिय हैं मैं उनकी मनोप्रिया हूँ;
" और स्वयंवर से ही मुझको देवव्रत हर लाये,
मेरे मन के रंग भंग कर दृग में अश्रु उगाये।
हुई भावनाएँ, सब आहत, जीवन हुआ कलंकित
वर्तमान की झझाओं से है भविष्य आषंकित।
कौन समर्थ षक्ति सत्ता को यहाँ रोक पाया है?
हुआ वही है यहाँ कि उसको जो कुछ भी भाया है।
दया करें अविलम्ब अम्ब! मेरा अभीष्ट दिलवा दें,
मुझको मेरे साल्वराज के चरणों में पहुँचा दें। "
" पुत्री! तूने साहसकर सच कहकर उचित किया है,
और धर्म पालन का मुझको समुचित समय दिया है।
नारी हूँ नारी की मैं भावना समझ सकती हूँ,
ज्वलित कामनाओं के उपवन में यद्यपि रहती हूँ।
प्ुात्री! जो दुर्भाग्य अंक में अपने गया लिखा है,
पदे-पदे बस वही धरा पर आकर यहाँ मिला है।
चिन्ता मत कर तुझको वांछित वर तक पहुँचाऊँगी,
नहीं बलात् कामनाओं को तेरी जलवाऊँगी।
देख परिजनों पर संकट मैंने भी कष्ट सहे हैं,
राजदण्ड की काली छाया में सुख स्वप्न ढहे हैं।
पुत्री! इसी मदिर यौवन ने मुझको दुःख दिया है,
कुटिल दृष्टि से भस्म हुई अरमानों की कुटिया है। "
धर्मविदों से परामर्ष कर सत्यवती ने सत्वर,
साल्वराज के पास पठाया था अम्बर को सादर।
अम्बा के मन में खुषियों का महासिन्धु उमड़ा था,
मधुर कामनाओं का नूतन घटा जाल घुमड़ा था।
कभी गुलाबी महक दौड़ जाती थी उसके तन में,
कभी बसन्त बहारें नर्त्तन कर उठती थीं मन में,
छटा इन्द्रधनुषी मन में फिर-फिर उभार पाती थी।
अपनी धुन में खोयी जाने क्या-क्या वह गाती थी,
किन्तु जानती नहीं कामन-कुसुम न खिल पायेंगे,
खिलने से पहले ही सारे भाव बिखर जायेंगे।
भावुकता के भँवर भावनाओं को पी जायेंगे
निष्ठुर छली-बली क्षणभर भी मोह न कर पायेंगे।
जगी हुई यह दीपषिखा शृंगार न कर पायेगी,
नयन पात्र के अश्रुसिन्धु में गिरकर बुझ जायेगी।
भीतर के शृंगार सहमकर भीतर मुरझायंेगे,
कर्पूरी ये स्वप्न क्षणों में जलकर उड़ जायेंगे।
मिलने आये साल्व किन्तु वे खिन्न प्रचुर थे,
बदले हुए मुखौटा, बदले-बदले उनके सुर थे,
किन्तु कथन करते कुछ भी, अम्बा ने किया निवेदन-
" चरणों की सेविका आज करती सम्पूर्ण समर्पण।
जीवन के किरीट, मेरे अन्तस में समा गये हो,
जो न विसर्जित हुई एक क्षण वह अक्षर प्रतिमा हो,
एकमात्र तुम ही स्वामी हो मेरे तन-मन-धन के
रसिक श्रृंग हो तुम ही मेरे यौवन नन्दन वन के। "
बस कर मत उपहास मौन हो, पहले ही हूँ पीड़ित,
जीवन के किरीट कहकर करती क्यों मुझे कलंकित,
अब न रहा सम्बन्ध रंच भी अम्बे! तुझसे मेरा
तेरे कारण ही पाया मैंने अपमान घनेरा।
निर्लजजता तुम्हारे मुख पर बदली-सी छायी है
कौन प्रयोजन से अम्बा! तू आज इधर आयी है?
प्रिय के अप्रिय शब्द तीरे-से लगे हृदय में धँसने,
चरणों के नीचे से मानों धरती लगी खिसकने।
चकराया सिर अम्बा का, क्षणकर में किन्तु सम्हलकर,
उर-अन्तर से शब्द निकल अधरों पर आये सत्वर।
आज अप्रत्याषित-सी भाषा क्योंकर बोल रहे हो?
क्यों वाणी शृंगार हीन, क्यों कटुता घोल रहे हो?
मन का सुमन, हृदय का उपवन वैसे ही गन्धित है,
घोर प्रतीक्षारत सुकुमारी वरमाला लज्जित है,
नीलकमल के नयनों में तो अश्रु उगे रहते हैं,
मधुर मिलन की मधुर-वेदना कािा नितय कहते हैं।
हुआ स्वयंवर भग्न, नियति स ेअब तक घबरायी हूँ,
स्वयंवरा में स्वयं वरण करने को अब आयी हूँ
सुनकर कुछ अचकचा गये थे साल्वराज भीतर से,
लगे उगलने जहर प्रखर विघुत प्रवाह के स्वर से।
" सावधान बाले! त्ेरे स्वर कठिन घात करते हैं।
जले हुए मेरे घावों पर नमक व्यर्थ करते हैं।
मौक्तिक ही चुँगते मराल या भूखे रह जाते हैं,
कंकर-पत्थर, किनका-तिनका वे न कभी खाते हैं।
कभी सिंह आखेट दूसरों के न ग्रहण करते हैं,
खुद करते अपना षिकार हैं और पेट भरते हैं।
अम्बे! तू उच्छिष्ट भीष्म का र्गिर्हत और घृणित है,
हो अपहृता हस्तिनापुर महलों में रही, विदित है।
सकल भाँति सकलंक, अंक को मेरे चाह रही है,
लज्जा आती नहीं तुझे क्यों मुझको डाह रही है।
धधक रहा है हृदय षून्य की अगणित ज्वालाओं से,
और न आहुति डाल शब्द की निर्मम समिधाओं से।
व्यर्थ बढ़ेगी अग्नि-अग्नि का धर्म न किसे विदित है,
अवसर पाये अग्नि धर्महित यह भी नहीं उचित है।
बस कुछ और नहीं कहना है जा चुपचाप यहाँ से
काषी को जा चली याकि फिर आयी इधर जहाँ से।
सौभराज के शब्द याकि अंगार झरे अम्बा पर,
बरस पड़े या शीषमहल पर प्रखर वेग से पत्थर।
थी निस्तम्ब्ध रह गयी अम्बा सपने बिखर गये थे,
आशा के सोपान मधुर क्षणभर में उजड़ गये थे।
मिटी पूर्व प्रियतम की छवि थी सौभराज आनन से,
प्रतिबिम्बित थी हुर्इ्र क्रूर वंचना आज आनन से।
गरज उठी जो रही अभी तक सजल घटा पावस की,
मुखर हो उठीं अग्नि ऋचाएँ अम्बा के अन्तस की।
साल्वराज! मिथ्याभिमान-घन-गर्जन कयों करते हो?
अपने मन की दुर्बलता का वर्णन क्यों करते हो?
भरे स्वयंवर में जब हम तीनों का हरण हुआ था,
उस क्षण कहाँ तुम्हारे बल विक्रम का मरण हुआ था?
बढ़कर लड़ते और भीष्म से मुक्त कराते मुझको,
दिखलाकर रण कौषल अपना त्वरित बचाते मुझको,
तब तो दुर्बल श्वान सदृष तुम पूँछ दबाकर भागे,
आज गरजते हो एकाकी मुझ अबला के आगे।
तन-मन कुटिल अमावस तेरा वस्त्र उजालो जैसे,
ओढ़ शेर की खाल आचरण तेरा वस्त्र उजालों जैसे।
मुझे मिले छल और प्रवंचन जीवन में हैं अबतक
समझा जिसे पुरुष था मैंने निकला निरा नपुंसक।
सघन मदन सन्त्रास भरा जीवन भी क्या जीवन है?
कायर की पत्नी बनने से उत्तम आत्मदहन है।
घोर पलायनवादी नर, नारी से भी दुर्बल है,
खड़ा हुआ गोधूम क्षेत्र में वह धोखा केवल है।
अम्बा थी नैवेद्य आज भी वह नैवेद्य मधुर है,
कुन्दन जैसा खरा, धधकता अब तक अन्तःपुर है।
सौभराज! तू जा कर अपना राजकाज संचालन,
देखूँगी अब भाग्य करेगी कब तक नंगा नर्त्तन?
देख-देख कर खेल भाग्य का बार-बार हँसती हूँ,
विदुषी होकर जगड्वाल में जाने क्यों फँसती हूँ? "
चले गये थे साल्वराज नतषीष अतिथिषाला से,
निकल चुके थे जैसे अम्बा की मन-मधुषाला से-
और चल पड़ी थी अम्बा हस्तिनापुरी को सल्वर,
तमसावृत रजनी-से सपने श्याम लिये उर-अन्तर।
भीतर का तम बाहर भी हर और घिरा पड़ता था,
वह कोमल मुख कंज साल्व का कंटक-सा गड़ता था।
उन्नत था तम तोम धरा अम्बर की रखवाली में,
भरे हुए हीरक असंख्य नभ नीलम की थाली में,
धरती से अम्बर तक था अज्ञान सघन छाया है,
या ब्रह्माण्ड विजयिनी-सी उल्लसित हुई माया है।
या कज्जल अम्बुधि, निर्झर झर-झर कर एक हुए हैं।
श्याम-ष्याम नीरवता-राधा मिलकर एक हुए हैं,
या कि विसर्जित हुए सभीरस रास रंग वसुधा के,
डूबे हुए निराषा में निर्झर कामना-सुधा के।
किंकर्तव्यविमूढ़ा-सी सूने पथ पर एकाकी,
अलग-थलग नीरस कलिका-सी संसृति की माला की,
मन में आता जल समाधि लूँ, अग्नि प्रवेष करूँ या,
करने को निःषेध भोग जीवित संतप्त रहूँ या।
घोर उपेक्षानल में यों ही कब तक विवष दहूँ मैं?
आखिर है अपराध कौन जिस कारण दण्ड सहूँ मैं?
जीवन का वैभव विलास छूकर भी छुई मुई हूँ,
आते ही वरमाल हाथ में हतभागिनी हुई हूँ।
जीवन की रसधारा में संकट गिरि आन पड़े हैं,
भीतर-बाहर अपमानों के अग्नि स्तम्भ खड़े हैं,
जी करता है लोक-निष्ठुरता को मैं आग लगा दूँ,
मूलोच्छिन्न स्वार्थ को कर दूँ कटु अन्याय मिटा दूँ।
नारी! तू वासना अग्नि की केवल घृत आहुति है,
अपनी नहीं लोक रंजन के लिए लोक-संस्तुति है।
आखिर क्यों अन्याय हाय! नारी के लिए बना है?
क्योंकर उयके लिए घोर शोषण अभियान ठना है?
प्रथम लौट काषी को आायी अम्बा दुखियारी-सी,
किन्तु मिला अपमान तिरस्कृत हुई दाँव हारी-सी,
नहीं शरण मिल सकी एक पल अपने राजमहल में
सकल दृष्टियाँ बुझी हुई थीं मानो घोर राजमहल में
व्यंग्स-बाण की वृष्टि दृष्टि की पावक जला रही थी,
मौनव्रती-सी हुई आज जो अति चंचला रही थी,
सोंच रही बादल फट जाये या धरती फट जाये-
धैंस जाऊँ मैं मिट जाऊँ सारा संकट हट जाये
किन्तु शेष है अगर भोग तो सब कुछ सहना होगा,
परमेष्वर चाहेगा जैसे वैसे रहना होगा।
हे मेरे प्रारब्ध! नमन तुझको तू साथ चला चल,
चाहे अमरत पिला मुझे तू चाहे पिला हलाहल।
बनी याचिका फिर अम्बा कुरूवंष द्वार पर आकर,
बोली भीष्म पितामह से करबद्ध प्रणत सविनय स्वर-
" हे गांगेय! मधुर आषा आधार अभी अम्बा के,
ध्वस्त हो चुके और शरण सोपान सभी अम्बा के।
चरण शरण देकर जीवन को अभिनव रस से भर दो,
हर लो सब संकट कंटक मन उपवन गन्धित कर दो। "
" अम्बे! हम कुरूवंषी हैं प्रणभंग न कभी करेंगे,
मर्यादा हो षिथिल, आचरण वह हम नहीं करेंगे।
वरण हेतु आजन्म व्रती को क्यों प्रेरित करती है?
नारी होकर भी अरे क्यों नहीं लज्जा से डरती है?
मैं अखण्ड प्रण पथिक नहीं पथ से प्ग रंच टलेगा,
तुझ त्यक्ता को कुरुकुल का सेवक भी नहीं वरेगा।
पितृ तृप्ति के लिए कठिन संयम व्रत करने वाले,
जीवन का मधुमास विकट लपटों से भरने वाले।
बिना विचारे ही संयम का बड़ा कठिन निर्णय है,
क्योकि यौवनोन्माद बड़ा ही दृष्ट और निर्दय है।
कर देता है संकल्प षिथिल जप तप को खा जाता है,
मन की चंचल धाराओं में सद्गुण दुख पाता है।
अरे महानर! अग्निसिन्धु संतरण बड़ा दुस्तर है,
छोड़ सुधाघट पान कर रहा क्योंकर गरल प्रखर है?
गंध लुटाती हुई चाँदनी से भाग रहे हो?
यौवन के आनन्दभवन में क्यों भर आग रहे हो?
शुष्क हो रहे इन अधरों को अमरत धार पिला दो,
अपनी सोनल दृष्टि रष्मि से जीवन-कमल खिला दो।
हाय! तुम्हारा हृदय कठिन पाहन से भी पाहन है,
जो न पिघलता देख हमारा दीपित चन्द्रानन है,
जो मनोज्ञ रस-राषि नचाती धरा और सुरपुर को,
हाय! अनसुना किये दे रहे आप उसी नूपुर को।
नूपुर की झनकार सार सब मन्त्रों का भूतल पर,
मधुर-मधुर चेतना घोलती प्राणों में प्रिय अक्षर।
जहाँ जिन्दगी की सारी ध्वनियाँ लय हो जाती हैं,
जहाँ ज्ञान की अग्निषिखाएँ शीतलता पाती हैं।
जहाँ मधुरता के मादक सोपान सँवर जाते हैं,
शीषमहल संयम के क्षण में जहाँ बिखर जाते हैं,
जहाँ सर्जन के धर्म कर्म में-में तत्पर हो जाते हैं,
जहाँ रसिक मन भृंग भूल सब सुध-बुध खो जाते हैं।
वही रूप की सुधा पान करने में घबराते हो?
पौरुष के पगतिरूप् विवष क्यों सिर न उठा पाते हो?
बाले! मैं हूँ पिता तुल्य यों वचन व्यर्थ मत बोलो,
जीवन की इस सुरापगा में यों न हलाहल घोलो।
मैं हूँ गंगापुत्र पिता के वचनों का रखवाला,
ब्रह्मचर्य का व्रत अखण्ड मैंने है अब तक पाला।
भीष्म-प्रतिज्ञा सुदृढ़ सबल है झुकना नहीं जानती,
जीवन में वह लक्ष्य छोड़कर कुछ भी नहीं मानती।
नारी! तूने कर प्रहार वीरों को पथ दिखलाया है,
लक्ष्यभ्रष्ट कर संयम को, अवनति पथ दिखलाया है,
नारी की यदि यही शक्ति सन्मार्ग धर्मिणी होती
तो न साधना ब्रह्मचर्य की भूमण्डल पर रोती।
तूने नारद जैमिन से ऋषियों में ज्वार जगाये,
तूने विष्वमित्र पराषर व्यास अद्रि भटकाए।
तेरी दृष्टि अमोघ शक्ति है आदि वेधने वाली,
कौन पार पाया है तुझसे तेरी गति मतवाली।
सोचा है क्या कभी पुरुष की सत्ता के सम्बल को,
जो सबमें बसता समान है उस अखण्ड उज्ज्वल को
वही पुरुष तेरे भीतर भी हर पल रहा निवस है,
जो मेरे उर मन्दिर में चिर नूतन सहज सरस है।
जब तुझको अखण्ड संलग्नक-सा वह पुरुष मिला है,
फिर क्योंकर परपुरुष प्रेम का यह दुर्भाव खिला है?
क्यों न समर्पण करो चिरन्तन के चरणों पर अन्तर,
और सुहागिन बनो सनातन बाले! इस बसुधा पर।
शुभे! सरोवर के नीरव जल में मत कंकर फेंको,
मन की इस चंचल गति को हरिचरणों में कुछ टेको,
सोयी हुई तरंगे जब नीरवता से जगती हैं-
तो खुद को ही नहीं तटों को भी घायल करती हैं।
विषयों का ही ध्यान घोर आसक्ति प्रबल करता है,
और घोर आसक्त चित्त दुष्चिन्तन में जलता है।
शुभे! प्रबल आसक्ति कामनाओं का सर्जन करती,
बाधित हो कामना क्रोध का प्रखर उन्नयन करती।
जाग्रत होती मोह-निषा जो सुमति भ्रंष करती है,
स्ुामति भ्रंष कर प्रज्ञा की सक्रियता, श्री हरती है,
प्रज्ञा हो श्रीहीन पतन के व्दार खोल देती है,
जीवन के श्री सुधा-कलष में गरल घोल देती है।
अम्बे! यह आसक्ति आत्म उन्नति पथ की बाधक है,
इसीलिए इससे बचता रहता पवित्र साधक है।
बाप पाप का लोभ सघन अब तुझमें जाग उठा है,
तेरे उर में ध्वंसधर्मिणी वह भर आग उठा है।
लोभ बुद्धि को खा जाता है और क्रोध लज्जा को,
भग्न लाज जर्जर करती है मनुजधर्म सज्जा को।
धर्मभ्रष्ट हो जाने पर श्री शान्ति विसर्जित होती,
ज्यों फल पुष्प विहीन लता-सी कोई बन्ध्या रोती।
लुटा-लुटा-सा कुछ भी तो शुभ सोच नहीं पाता है,
घोर उपेक्षित निर्धन-सा आँसू ही टपकाता है।
शुभे! नहीं माँगे से मिलती असमय मृत्यु किसी को,
एक-एक क्षण भोग सुनिष्चित कहते यहाँ इसी को। "
" कुरूकुल श्रेष्ठ ज्येष्ठ वीरेष्वर! भाषण बहुत मधुर है,
किन्तु कामना दावानल भी क्या कम ध्वंसातुर है?
यौवन के घोड़े जब अपना वेग जान लेते है ं,
धरती क्या फिर आसमान की ठान, ठान लेते हैं।
श्री विवेक असवार नहींे उनका सम्हाल पाता है,
जगा हुआ उन्माद कहाँ क्षणभर में रूक जाता है।
परम ज्ञान वासना प्रभंजन में खाता गोता है,
स्ंायम का संकल्प व्यथाकुल खड़ा-खड़ा रोता है।
जिसकी मधुर लहर सागर के ज्वारों पर भारी है,
जिसकी लघु चितवन पर सारी चिरता बलिहारी है।
आकर्षण की डोर हृदय को बाँध लिया करती है,
और प्राण से प्राण प्रणय का योग किया करती है।
दीपषिखा यौवन की धरती-व्योम जोड़ देती है,
शक्तिमती है धार कठिन पाषण तोड़ देती है।
तिरस्कार यौवन का तन-मन गलित किया करता है,
ज्वालामुखी प्रखर कुण्डा का ज्वलित किया करता है।
तुमने मेरा हरण किया है अपने बल-विक्रम से,
फिर क्यों मेरा तिरस्कार कर रहे विवष संयम से?
भ्रमवष त्याग रत्न का पीछे पछतावा देता है,
देकर घोर विषाद मनस की शान्ति छीन लेता है।
मैं तू हूँ अबला उपेछिता पग-पग अपमानित हूँ,
पड़ी आँसुओं की धारा में दिषाहीन धावित हूँ।
प्रथम किया अपमान हरणकर मुझे यहाँ पर लाये,
और द्वितीय अनादर, मेरा वरण नहीं कर पाये।
हाय! हाय! नरश्रेष्ठ! कौन-सा मैंने पाप किया है?
मेरी जीवनधारा में क्यों गरल उड़ेल दिया है?
एकमात्र तुम ही कारण हो मेरी पीड़ाओं के,
भंग कर दिये वेग मधुर रस की सब धाराओं के।
आँसू का उपहार कभी मैं भुला नहीं पाऊँगी,
शाप-घटा-सी सदा तुम्हारे जीवन पर छाऊँगी।
यौवन में मृदु-हास कुसुम अब कभी न खिल पायेेंगे,
धिक्कारेंगे तुम्हें सदा आँसू ही बरसायेंगे।
क्योंकर फेंका पंक हमारे धवल अंक उज्ज्वल में,
जीवन की सानन्द-तरी को क्यों डाला दलदल में?
उठती हुई उमंग-तरंगो का वध करने वाले,
जीवन की चन्द्रिका हरण कर तम संरचने वाले।
हाय! तुम्हारे प्रखर शक्तिमद ने हर लिया उजाला,
मधुर भावनाओं का अम्बर खण्ड-खण्ड कर डाला।
होकर विज्ञ उचित-अनुचित कुछ भी तो नहीं विचारा,
अपनी हठ के लिए रूद्ध की मेरी जीवनधारा।
जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्त कभी भी भूल नहीं पाओगे,
दुखपाओगे भीतर-ही-भीतर बस पछताओगे।
अंगारों में झोेंक मुझे क्या मिला तुम्हें कुरूकुलधर!
बोलो-बोलो मौन क्यों हुए धरती के अलेय नर!
सुनो वीर! यदि जीवन में अम्बा अपमान सहेगी,
तो तेरे जीवन में भी सुख सरिता नहीें बहेगी।
पड़े-पड़े पष्चातापों की शय्या पर रोओगे,
मर्यादाओं के खण्डन का समुचित फल भोगोगे। "
"अयि निस्त्रपयौवने! व्यर्थ मुझ पर मत दोष लगाओ,
कुछ अपनी त्रुटियों पर भी अपना विवेक ले जाओ।
मैं तो यही चाहता था तुम रहो हस्तिनापुर में,
'अम्बालिका' 'अम्बिका' -सी रानी बन अन्तःपुर में।
पर तुमने तो साल्वराज से ही अनुराग किया था,
मन ही मन कर वरण प्राणपति उसको मान लिया था,
मुझे रंच भी अगर ज्ञान इस घटनाक्रम का होता
तो मैं तुझको कभी न लाता, व्यर्थ दोष क्योें ढोता?
कुरूवंषी हैं वीर सदा नैवेद्य ग्रहण करते हैं,
नहीं कभी निर्माल्य दृष्टि के आगे भी धरते हैं,
अब तू है निर्माल्य साल्व का कुरूवंषी न वरेंगे,
कुल की मर्यादाओं के प्रतिकूल न कार्य करेंगे।
अगर हरण के समय गिरा यह तेरी मुखरित होती,
तो न शरण के लिए याचना करती क्षण-क्षण रोती।
अबले! तेरा भाग्य क्रूर है और बड़ा निर्दय है,
पूर्व आचरित दुराचरण कुछ तो निष्चित संचय है।
यदि न साल्व के पास याचना करने को तू जाती,
तो जीवन में रंचमात्र भी दुःख नहीं फिर पाती,
नारी! पवित्रता की मर्यादा से तू बन्धित है,
मर्यादाओं से सज्जित ही वन्दित अभिनन्दित है।
रााजमहिषियाँ राजमहल की चौखट तक सीमित है,
अतिक्रमण सीमाओं का सब भाँति घोर निन्दित है।
अम्बे! मैं हूँ विवष किस तरह मर्यादा को तोडूँ?
एक दिषा के साथ किस तरह दिषा दूसरी जोडूँ?
किसी तरह सम्भ्व न प्रतिज्ञा, मर्यादा का खण्डन,
हम कुरूवंषी धर्म-पंथ का क्यों कर दें उल्लंघन?
मुख से वचन, चाप से सायक छुटकर लौट न पाते,
लंकेषों के आगे रखकर अंगद पग न हटाते।
कहो भला बचपन-यौवन जाकर फिर कब आते हैं?
कालचक्र के बीते दिन भी कभी लौट पाते हैं?
किसी तरह कुरूवंष धर्म को नहीं बदल सकता है
प्रबल हमारा प्रण अखण्ड तिलमात्र न टल सकता है।
अब जा लौट पिता के घर को यही उचित लगता है
कह दे जाकर सत्यकथा सब भाग्य यही कहता है।
पीहर और भवन पति का दो उचित वास तेरे है ं,
अन्य कहीं भी शरण नहीं, बस संकट के घेरे हैं।
वही कुलवधू वसुधातल पर अभिनन्दन है पाती,
पितृगृह से डोली अरथी पतिगृह से जिसकी जाती,
दया नहीं आदर पाने की अधिकारी नारी है,
मर्यादा शुचिता से सज्जित मधुगन्धित क्यारी है।
पहले ही अपमान हो चुका पितु का दुखद हरण से,
और हुआ है अधिक रही जब वंचित पाणिग्रहण से,
करूँ और अपमान लौटकर अपना मुँह दिखलाऊ,
जले हुए उनके घावों पर फिर स ेनमक लगाऊँ?
अरे भीष्म! जिस मर्यादा का तुम बखान करते हो
लाँघ गये हो उसे स्वयं अब व्यर्थ दम्भ भरते हो।
भरी सभा से खींच मुझे जब रथ में बैठाया था
कहाँ तुम्हारा न्याय धर्म था, क्यों न रोक पाया था?
रीति स्वयंवर की पावन जिसमें नारी वरती है,
अपने प्रियतम का चुनाव अन्तर्मन से करती है,
किन्तु लुटेरों के समान जो कन्या हर लेते है,
अपराधी बनकर समाज को दुख अपार देते हैं।
क्षत्रिय होकर क्षत्राणी को क्या षिक्षा देते हो,
क्यों न खींच तलवार शीष मेरा उतार लेते हो?
आलिंगन मैं करूँ मृत्यु का किन्तु न घर जाऊँगी,
देखूँअी अब खेल भाग्य का रंच न घबराऊँगी।
रोम-रोम में जगा क्रोध प्रतिषोध धधक आया था,
भीष्म पितामह के प्रति क्रोध अखण्ड उभर आया था।
तिरस्कृता अम्बा अबला चल पड़ी वहाँ से सत्वर,
पुनः आ गयी लौट हस्तिनापुर नगरी के बाहर।
सोच रही थी " द्वार सभी हैं बन्द किधर को जाउँ,
अनपेक्षित अपमान घोर से मुक्ति किस तरह पाउँ?
अपमानिता राजकन्या को आश्रय कहाँ धरा है?
जीवन में पग-पग पर संकट-कण्टक ही उभरा है।
जिस नारी के बिना सृष्टि में कोई तत्व नहीं है,
हाय! उसी का यहाँ रह गया रंच महत्त्व नहीं है।
ओह! विधाता! कैसा तुमने मेरा भाग्य रचा है?
अश्रुधार के सिवा जहाँ कुछ और न शेष बचा है।
सुधाधार का पान कराकर जिसको मैंने पाला,
क्यों है वह उन्मत दर्प से, अभिमानी मतवाला?
आज उसी ने उपकारों को मेरे भुला दिया है,
दान-मान के बदले में कितना अपमान किया है।
अगर ब्याहकर मैं भी आती सहज कुलवधू होती,
बनती पूज्य राज्यमाता में यों न विवष हो रोती।
अपने ही न सकल जन संकुल नमन निवेदित करता,
पावन श्रद्धा के प्रसून मेरे चरणों पर धरता।
किन्तु भाग्य का प्रबल चक्र कब रहा एक जैसा है?
कोई भी न समझ पाया यह कब किसका कैसा है?
यौवन के उस मनोवेग पर यदि लगाम कस पाती,
तो जीवन में मधुर सुधा की सरस धार लहराती।
अंग रत्न स्वर्णाभूषण से सहज सुसज्जित होते,
गौरव गरिमा के किरीट नित सिर पर हर्षित होते।
राजमहल की मधुर तरंगे हर उमंग में होती,
और अगरू की दिव्य गन्ध को मेरी साँसे ढोती।
अंग-अंग आनन्द-जलधि उत्तुंग तरंगित होता,
रोम-रोम रस-रास-हास से नित्य निमज्जित होता।
दिवस भव्य होते कितने जब मैं कुलवधू कहाती,
रजत चन्द्रिका मन-मन्दिर में क्षण-क्षण आती-जाती।
अन्तस के उदयाचल पर नित नव प्रभात मुस्काता,
नित्य सुनहरे-कमल बिहँसते, मानस सुख छलकाता;
किन्तु प्रभाती से पहले ही घिरे सघन घन काले,
लूट ले गये क्षणभर में ही जीवन के उजियाले।
कहाँ रत्नमणियों से मण्डित मन्दिर मधुगन्धित थे,
चम्पा जुही गुलाब चमेली बेला उत्कर्षित थे,
स्वर्ण कलष कर धरे दासियाँ स्वागत को उत्सुक थीं,
चँवर डुलाती हुई युवतियाँ भूषित अमुक-अमुक थीं।
और कहीं अब तृण-कुटीर भी स्वप्न महल लगता है,
दग्ध विचार और सिकता से तन-मन सब जलता है,
लिपआ हुआ काल-पट में सब वैभव चला गया है,
चंचल मन अज्ञात-ज्ञात के हाथों छला गया है।
मैं नारी हूँ विथकित मेरी जीवन लता त्रसित है,
परतन्त्रता श्रंृखला से आजन्म सुदृढ़ बंधित है।
जगे हुए उदगार हृदय के मुखर न कर पाती हूँ,
उभरी हुई भावना-सी उइती हूँ गिर जाती हूँ।
कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड व्यापिनी एक परासत्ता है।
पत्ता-पत्ता, तृण-तृण में उसकी ही गुणवत्ता है।
मृण्मय, चिन्मय का संयोजन नित्य किया करती है।
धरती है आलोक कभी धरती पर तम धरती है।
पंचभूतमय प्रकृति नित्य परिवर्तन प्रिया बनी है,
करती नव श्रंृगार मनोहर रहती गनी-गनी है।
जो श्रंृगार प्रकृति के हमको जिजीविषा देते हैं,
वही विसर्जित होकर सुख की छटा छीन लेते हैं।
वह अव्यक्त अनादि अनन्त अभेद्य अखण्ड अतुल है,
एकल सदा एकरस होकर भी विराट संकुल है।
सृजन-विसर्जन ग्रहण-त्याग अपने में अपना करती,
बिखरती है कभी-कभी पूरा हर सपना करती।
क्षण-क्षण कर उतसर्ग प्रकृति नव गुरुता को पाती है,
पीकर गरल अमाप सृष्टि हित अमरत बरसाती है।
मनुज सृष्टि कर उसने धरती का शृंगार किया है,
जैसे नीलगगन को दिनमणि का उपहार दिया है।
कर उत्कर्ष स्वत्व का तिल-तिल बीज वृक्ष बनता है,
प्रबल त्याग कर ही यह जीवन पाता महानता है।
यद्यपि नर की सत्ता ने तप त्याग सदैव किये हैं,
हर युग में हर कालकाण्ड में नव आदर्ष दिये हैं।
धर्म कर्म बलिदान और परसेवा अमित भरी है,
ऋषियों की, वीरों की गाथा शुचि प्रेरणा करी है।
उनके सृजन-ध्वंस दोनों ही मुखर सदैव रहेंगे,
साथ-साथ जीवन धारा के मिलकर सदा बहेंगे;
किन्तु महत्त्वाकांक्षा में नारी भी क्या कुछ कम है,
उसका भी जीवन सदैव तप त्याग पूर्ण अनुपम है।
पर रक्षक नर के अधीन वह रही दबी प्रतिभा-सी।
नहीं कभी खिल सकी ठीक जीवन की पूरनमासी।
अपनी प्रतिभा का न कभी उत्कर्ष पूर्ण कर पायी,
जब भी अवसर मिला उभर कर है नूतन छवि आयी।
यदि ममता समता के भूषण नारी को मिल पाते,
करती वह उत्कर्ष और विधि हरि हर सुर हरषाते।
जबसे जन्मी है, तब से ही व्यंग्य बाण सहती है,
दहती है भीतर ही भीतर किनतु न कुछ कहती है।
कहती है कुछ तो उसकी आवाज दबा दी जाती
प्राणों में वेदना उभरती किन्तु कहाँ स्वर पाती।
वह माधुर्य-निर्झरी आँसू के सर में रहती है,
जीवन के उन्नयन हेतु सन्त्रास घोर सहती है।
सन्त्रासों की डोर कहाँ दुर्बल हो सकी धरा पर,
ओर सबल हो रही निरन्तर घर परिवार घटाकर।
असह हो गयी जब नारी शोषण की कठिन बयारी,
कभी पिया विष प्याला उर में कभी कटार उतारी।
कभी कूदकर महलों से है अपनी लाज बचायी,
कभी समाकर जलधारा में चिरषीलता पायी।
नारी का उत्सर्ग धरा पर पग-पग सतत ध्वनित है,
बलिदानों की सबल शृंखला उन्नत और अमित है।
उद्भव पालन और प्रलय का एकाधार सबल है,
पुरुष मात्र सह संचालक-सा नाच रहा हरपल है।
छायी रहती नारी के सिर का मनुज-दृष्टि की कृष्णा,
शोषण करती रही सभी का राजभोग की तृष्णा।
किसे नहीं अनचाहा जीवन जीना यहाँ पड़ा है,
किसके पथ पर नहीं संकटों का अवरोध खड़ा है?
और घोर अवरोध पार कर जो आगे बढ़ता है,
वही उच्चता के सोपानों पर हँसकर चढ़ता है।
तपे बिना कंचन कब कुन्दर कान्ति सहज है पाता,
बिना दुखों में दहे सुखों का स्वाद कहाँ है आता?
छाया हुआ धुआँ-सा क्योंकर यह मन के ऊपर है?
सदृचिन्तन का दीप ले गया कौन किधर हरकर है?
भौतिकता का सघन कुहासा जन-मन पर छाया है,
आज मत्स्गन्धाओं का मन रहता घबराया है।
बिना धूप के ज्यों धरती के रंग मलिन लगते हैं,
त्यों ही नारी के बिन नर को दिन दुर्दिन लगते हैं।
डगर-डगर पर नग्न विषमता ताण्डव नर्तन करती,
सौमनस्य की मधुर धरा का पग-पग मर्दन करती।
लौकिक और पारलौकिक गति क्षण में देने वाली,
तृषा-तृप्ति की सहोदरा वैराग राग की लाली।
कभी अपसरा बिन हिमाद्रि का संयम ठग लेती है,
कभी प्रखर प्रबोधनी बनकर ऋषिता भर देती है।
आकर्षण-प्रतिकर्षण और विकर्षण के दर्पण-सी,
कभी त्याज्य मरुथल-सी बनती कभी रसाकर्षण-सी।
नारी तो त्रैलोक शोक तम हारक ज्योति प्रबल है।
लोक विदित इतिहास, ज्ञान की धारा परमोज्जवल है।
भवसागर का सेतु समुन्नत उन्नत पथ निर्भ्रम है,
वह अनादि अनवद्य सृष्टि की दीपषिखा अनुपम है।
जीवन की यह तरी काल की धरा में धावित है,
प्रखर थपेड़ों को सहकर भी प्रगतिमती-सी नित है।
सुमन सुगन्धित कभी-कभी काँटों के हार मिले हैं,
कभी-कभी माधुर्य कभी कटुता के खार मिले हैं।
नारी का उत्कर्ष पूर्ण मातृत्व सतीत्व युगल है,
माँ से बढ़कर पद समष्टि में और कौन उज्ज्वल है?
माता होकर नारी कितनी गुरु गरिमा पाती है,
धरती से सुरपुर तक पूजित वन्दित हो जाती है।
सहिष्णुता, तप, त्याग, राग की प्रतिमा तेरी जय हो,
कीर्ति-कौमुदी धराधाम पर अनुपमेय अक्षय हो।
जीवन-नभ पर उगे सद्गुणों के तारक धुँधलाए
देख सुधाकर श्री विवेक के नेत्र स्वयं भर आये।
धन्य विधाता! धन्य तुम्हारी धन्य-धन्य माया है,
कभी दहकती धूप शीष पर कभी मधुर छाया है।
सुधासिक्त होकर यह जीवन क्षणभर मुस्काता है,
और कभी मरूमरीचिका में घुट-घुट रह जाता है।
क्या विचित्र संयोग पंक पंकज का यह नाता है,
एक ऊर्ध्वता षिखर दूसरा अधःपतन दाता है।
हाय! भीष्म तुम मेरे स्वर्णिम सपनों के हिंसक हो,
मधुर कामना-रत्न पुरों के निर्मम विध्वंसक हो,
हिंसक है जो पुरूष लोक में सुख न कभी पाता है,
जीवन में वह घोर ग्लानि से भर कर पछताता है।
होता है विपरीत भाग्य तिल का पहाड़ बन जाता,
और अगर अनुकूल बने तो माटी स्वर्ण बनाता।
जगा हुआ कुविचार दुःख बन्धन का दृढ़ कारण है,
एक मात्र सद्चिन्तन ही बस इसका निराकरण है।
उसमें मैं क्या कहूँ जानता जो सब जग भर की है,
देख रहा है तिल-तिल करनी जो मेरे कर की है।
खुषी-खुषी पौधे बबूल के मैंने उगा लिये हैं,
पग-पग देष प्रखर काँटों के पथ पर सजा लिये हैं।
सिद्ध हुआ यह आज धरा पर कोई नहीं किसी का
प्रीति, मीत हैं स्वार्थपूर्ति तक मैं हूँ साक्ष्य इसी का
दैहिक सुन्दरता धरती पर पग-पग भरी पड़ी है,
किन्तु नहीं सर्वत्र सद्गुणों की मोतिया लड़ी है।
समझ सकी मैं बहुत देर में गुणी मनुज सुन्दर है,
सुन्दर हो, गुणहीन किन्तु हो तो दुःखों का घर है।
सद्गुण से सम्पन्न एक नर कोटिक से उत्तम है,
हो जाती सान्निध्य प्राप्त कर जीवन प्रगति परम है।
कर्म पंक में खींच रही नर को नर की जड़ता है,
चाहा अनचाहा फिर तो सहना बलात पड़ता है।
तन मन विगलित और प्राण जल जाने को आतुर हैं,
किन्तु छोड़तेे नहीं अस्थि-पंजर कितने निष्ठुर हैं।
जीवन की यह तरी फँस गयी है अब तूफानों में,
कुटिल भाग्य ने आग लगा दी सोनल अरमानों में,
लक्ष्य न मैं पा सकी, जल रही तिल-तिल हूँ अकुलाती
हाय! विधाता! तुझे रंच क्यों दया नहीं है आती?
जीवन के भावी पृष्ठों को कौन यहाँ पढ़ पाया?
रही समझती जिसको सहचर वह थी केवल माया,
तड़प रहे हैं प्राण क्रोध को पीकर रह जातें हैं,
किन्तु विवष असहाय शरण फिर भी न कहीं पाते हैं।
क्यों शोषण के लिए रचा नारी को हाय! विधाता?
यह अपाट वैषम्य तुम्हारा कुछ न समझ में आता।
कहाँ ठिकाना होगा अपना कुछ न दृष्टि आता है,
पीड़ाओं के इस अरण्य में मन अति अकुलाता है।