हस्ती को हसरत की नई रह गुज़र करो
सूरज ढलान पर है शमआ को खबर करो
यह सच है अन्धेरे का समंदर है सामने
रोशन दिमाग लोगो! बढ़ो, बढ़के सर करो
तारीकियों को शोर पिलाती है यह हवा
मश अल बदस्त-बाजे जिरस तेज़तर करो <ref>यह लाईन कुछ अस्पष्ट-सी है, कुछ शब्द समझ में नहीं आ रहे हैं</ref>
गो भीड़ बेशुमार है पर रास्ता तो है
थोड़ा-सा सब्र रख के इसी पर सफ़र करो
तुम तो नतीजतन ग़मे दुनिया की नज़्र हो
अश्कों को अब न शामिले-ख़ूने जिगर करो
यह हल्क-ए निज़ात है क्या सोच रहे हो
करना तुम्हे है जो भी शलभ सर-ब-सर करो
रचनाकाल : 03 जनवरी 1983, विदिशा
शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रवीन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।
शब्दार्थ
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