हाँथ सिर पर धरो मातु तुम शारदे / सुनील त्रिपाठी
हाथ सिर पर धरो मातु तुम शारदे, भाव के पुष्प नित मैं चढ़ाता रहूँ॥
पद्म आसित रहो चक्र पर ज्ञान के, गीतिका छंद मुक्तक बनाता रहूँ॥
लेखनी सत्य की मसि में' डूबी रहे, जब चले तो सदा सत्य ही बस लिखे।
सत्य का मात्र चिन्तन मनन मैं करूँ, सत्य से निज सर्जन को सजाता रहूँ॥
काव्य साहित्य से भक्त अन्जान है, मापनी व्याकरण का कहाँ ज्ञान है।
गुरु कृपा से मिले तव कृपा हंसिनी, शीश पद रज मैं' गुरु की लगाता रहूँ॥
देवि तुम ज्ञान की बुद्धि की दायिनी, तम हरो दो मुझे अब नई रोशनी।
भक्ति घृत में डुबा वर्तिका प्रेम की, दीप सम्मुख तुम्हारे जलाता रहूँ॥
मात्र वरदान इतना मुझे मातु दो, हो न अभिमान अपने सर्जन पर कभी।
जो लिखाया पकड़ हाँथ माँ रात दिन, हूँ मैं' उपकृत तुम्हारा बताता रहूँ॥
भाग्य के दास जो हीन हैं कर्म से, दो उन्हें बुद्धि सद् श्वेतकमलासिनी।
माँग अधिकार की जब करें लोग वे, याद कर्त्तव्य उनको दिलाता रहूँ॥
भक्त करते तुम्हारी जो' आराधना, पूर्ण करती सभी की मनोकामना।
याचना वीणा'पाणिनि यही है मे' री नित्य दर्शन सुबह शाम पाता रहूँ॥